भूमि का चुनाव एवं तैयारीः-
सोयाबीन की खेती अधिक हल्की, रेतीली व हल्की भूमि को छोड़कर सभी प्रकार की भूमि में सफलता पूर्वक की जा सकती है परन्तु पानी के निकास वाली चिकनी दोमट भूमि सोयाबीन के लिए अधिक उपयुक्त होती है। जहाँ भी पानी रूकता हो वहाँ सोयाबीन की फसल न लें। ग्रीष्म कालीन जुताई 3 वर्ष में कम से कम एक बार अवश्य करनी चाहिए। वर्षा प्रारंभ होने पर 2 या 3 बार बखर एवं पाटा चलाकर खेत को तैयार कर लेना चाहिए। इससे हानि पहुंचाने वाले कीटों की सभी अवस्थाएं नष्ट होंगी तथा खरपतवारों को भी नष्ट किया जा सकता है। ढेला रहित और भुरभुरी मिट्टी वाले खेत सोयाबीन के लिए उत्तम होते हैं। खेत में पानी भरने से सोयाबीन की फसल पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अतः अधिक उत्पादन के लिए खेत में जल निकास की व्यवस्था करना आवश्यक होता है, इस हेतु 20-25 लाइनों के बाद एक नाली का निर्माण करें। जहाँ तक संभव हो जुताई समय से करें। जिससे अंकुरित खरपतवार नष्ट हो सके एवं संभव हो तो मेड़ और कुंड (रीज एवं फरो) बनाकर बुवाई करें।
सोयाबीन की उन्नतशील प्रजातियाॅ एवं उनकी विशेषताएँः-
प्रजातियों का नाम
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पकने की अवधि,
दिन
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उपज,
क्विं/हेक्ट.
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विशेष गुण
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जे.एस. 335
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95-100
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25-30
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व्यापक क्षेत्र के लिए अनुकूल,
श्रेष्ठ अंकुरण,
अधिक उत्पादन क्षमता एवं बैक्टीरियल पश्च्यूल हेतु प्रतिरोधिता,
बड ब्लाइट रोग एवं कीटों में तना मक्खी हेतु सहनशीलता।
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जे.एस. 93-05
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90-95
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25-30
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व्यापक क्षेत्र के लिए अनुकूल,
शीघ्र पकने वाली,
चार दाने वाली फली,
अच्छी अंकुरण क्षमता,
फली चटकने के लिए प्रतिरोधी,
जड़ सड़न एवं प्रमुख कीट एवं बीमारियों के प्रतिरोधिता सहनशीलता।
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जे.एस. 95-60
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82-87
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18-20
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अतिशीघ्र पकने वाली,
चार दाने वाली फली,
कम वर्षा तथा उथली जमीन वाले क्षेत्रों के लिये अनुकूल,
अच्छी अंकुरण क्षमता,
फली चटकने के लिए प्रतिरोधी,
सूखा एवं अधिक तापमान सहनशील तथा कीटों में तना मक्खी,
चक्रभृंग,
नीला भृंग व बीमारियों में जड़ सड़न तथा जीवाणु धब्बे के लिए प्रतिरोधक।
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जे.एस. 90-41
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87-98
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25-30
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शीघ्र पकने वाली,
चार दाने वाली,
अच्छी अंकुरण क्षमता रोग एवं कीट व्याधियो के प्रति प्रतिरोधिता सहनशीलता।
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जे.एस. 80-21
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100-105
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25-30
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श्रेष्ठ अंकुरण क्षमता,
माइरोथिसयम रोग एवं पत्ती खाने वाले कीटों के लिए प्रतिरोधिता सहनशीलता।
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एन.आर.सी. 37
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100-105
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25-30
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अधिक उत्पादन क्षमता,
अच्छी अंकुरण क्षमता,
फली चटकने के लिए प्रतिरोधिता,
प्रमुख कीट एवं बीमारियों के प्रति प्रतिरोधिता सहनशीलता।
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एन.आर.सी. 7
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90-100
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25-30
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बेक्टीरियल पश्च्यूल,
हरा विषाणु रोग,
बेक्टीरियल ब्लाइट,
फायलोडी विषाणु रोग के प्रति प्रतिरोधिता,
मक्खी,
तगर्डलबीटल,
हरा और भूरा सेमीलूपर के लिए सहनशीलता।
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एन.आर.सी. 12
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95-100
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25-30
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बेक्टीरियल पश्च्यूल,
माइरोथिसयम पर्ण दाग,
बेक्टीरियल ब्लाइट,
राइजोक्टोनिया पर्ण झुलसन के प्रति प्रतिरोधकता,
पत्ती खाने वाले कीट,
तना मक्खी,
चक्रभृंग कीट के प्रति सहनशीलता।
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एन.आर.सी. 2
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100-105
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25-30
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राइजोक्टोनिया पर्ण झुलसन,
हरा विषाणु रोग के प्रति प्रतिरोधकता,
सरकोस्पोरा तथा एन्थ्रेकनोज बीमारी के लिए सहनशीलता।
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जे.एस. 97-52
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100-105
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22-25
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व्यापक क्षेत्र के लिए अनुकूल,
सर्वश्रेष्ठ अंकुरण,
अधिक उत्पादन क्षमता,
बहुरोधी क्षमता फली चटकने के लिए प्रतिरोधी। पीला मोजेक,
जड़ सड़न एवं कीटों में तना छेदक एवं पत्ती भक्षक एवं अधिक नमी के लिए प्रतिरोधी एवं सहनशील। फूल का रंग सफेद।
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सी.जी. सोया-1
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95-100
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25-30
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अच्छी अंकुरण क्षमता,
बड ब्लाइट एवं फली चटकने के लिए प्रतिरोधी
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अन्य उन्नत किस्मेंः- जे.एस. 97-52 एवं आर.के.एस.-18
बीज दरः-
1. छोटे दाने वाली किस्में - 70 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
2. मध्यम दाने वाली किस्में - 80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
3. बड़े दाने वाली किस्में - 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर
बुवाई का समयः-
जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक का समय सबसे उपयुक्त है। बोने के समय अच्छे अंकुरण हेतु 10 सेमी. तक उपयुक्त नमी होनी चाहिए। जुलाई के प्रथम सप्ताह के पश्चात बोनी की बीज दर 5-10 प्रतिशत बढ़ा देना चाहिए।
बुवाई की विधिः-
सोयाबीन की बुवाई कतारों में करना चाहिए। कतारों की दूरी 30 सेमी. छोटे दाने वाली किस्मों के लिए तथा 45 सेमी. बड़ी किस्मों के लिये उपयुक्त है। 20 कतारों के बाद एक कूड़ जल निथार एवं नमी संक्षरण के लिये खाली छोड़ देना चाहिए। बीज 2.5 से 3.0 सेमी. गहराई तक बोयें। बीज एवं खाद को अलग-अलग बोना चाहिये जिससे अंकुरण क्षमता प्रभावित न हो।
बीजोपचारः-
सोयाबीन के अंकुरण को बीज तथा मृदा जनित रोग प्रभावित करते हैं। इस की रोकथाम हेतु बीज को थीरम या केप्टाम 2 ग्राम + कार्बन्डाजीम या थायोफेनेट मिथाईल 1 ग्राम मिश्रण प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए अथवा थीरम 3 प्रतिशत + कार्बन्डाजीम 37 प्रतिशत मिश्रण 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज या ट्राईकोडरमा 4 ग्राम + कार्बन्डाजीम 2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज से उपचारित करके बुवाई करें।
कल्चर का उपयोगः
फफूंद नाशक दवाओं से बीजोपचार के पश्चात बीज को 5 ग्राम राईजोबियम एवं ग्राम पी.एस.बी. कल्चर प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें। उपचारित बीज को छाया में रखना चाहिए एवं शीघ्र बुवाई करना चाहिए। ध्यान रहे कि फफूंद नाशक दवा एवं कल्चर को एक साथ न मिलावें।
समन्वित पोषण प्रबंधनः
अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद (कम्पोस्ट) पांच टन प्रति हेक्टेयर अंतिम बखरनी के समय खेत में अच्छी तरह मिला देवें तथा बुवाई के समय 20 किलोग्राम नत्रजन 60 किलोग्राम स्फुर 20 किलोग्राम पोटाश एवं 20 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टेयर देवें। यह मात्रा मिट्टी परीक्षण के आधार पर घटाई-बढ़ाई जा सकती हैं यथा संभव नाडेप, फास्फो कम्पोस्ट के उपयोग को प्राथमिकता दें। रासयनिक उर्वरकों कों कूड़ों में लगभग 5 से 6 सेमी. की गहराई पर डालना चाहिए। गहरी काली मिट्टी में जिंक सल्फेट 50 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर एवं उथली मिट्टियों में 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 5-6 फसलें लेने के बाद उपयोग करना चाहिए।
खरपतवार प्रबंधन
सोयाबीन फसलमें उगने वाले खरपतवारों को मुख्यतः तीन श्रेणी में विभाजित किया जा सकता हैं।
(क) चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारः इस प्रकार के खरपतवारों की पत्तियां प्रायः चौड़ी होती हैं तथा यह मुख्यतः दो बीजपत्रीय पौधे होते हैं जैसे 1. महकुंआ (एजेरेटम कोनीजाइड्स) 2. जंगली चौलाई (अमरेन्थस बिरिडिस) 3. सफेद मुर्ग (सिलोसिया) 4. जंगली जूट (कोरकोरस एकुटैन्गुलस) 5. बनमकोय (फेप्तेलिस मिनिमा) 6. हजारदाना (फाइलेन्थस निरूरी) 7. कालादाना (आइपोमिया)
(ख) घासकुल के खरपतवारः इस कुल के खरपतवारों की पत्तियां पतली एवं लम्बी होती हैं तथा इनकी पत्तियों में समांतर धारियां पाई जाती हैं। यह एक बीजपत्रीय पोधे होते हैं जैसे 1. सांवा (इकाईनोक्लोआ कोलोना) 2. कोदो (इल्यूसिन इंडिका)।
(ग) मोथा परिवार के खरपतवारः इस परिवार के खरपतवारों की पत्तियां लम्बी तथा तना तीन या चार किनारे वाला ठोस होता हैं। जड़ों में गांठें (राइजोम) पाये जाते हैं जो भोजन इकट्ठा करके नये पौधों को जन्म देने में सहायक होते हैं 1. कथई मोथा (साइपेरस रोटन्डस) 2. पीला मोथा (साइपेरस इरिया)।
खरपतवारों से हानियां
उच्च तापमान एवं अधिक नमी खरपतवार की बढ़ोत्तरी में सहायक होते हैं। इसलिए यह आवश्यक हो जाता हैं कि उनकी बढ़ोत्तरी रोकी जाये जिससे फसल को बढ़ने के लिये अधिक से अधिक जगह, नमी, प्रकाश एवं उपलब्ध पोषक तत्व मिल सकें। प्रयोगों सके यह सिद्ध हो चुका हैं कि सोयाबीन के खरपतवारों को नष्ट न करने पर उपज में 25 से 70 प्रतिशत् तक की कमी हो सकती हैं।
खरपतवार नियंत्रण कब करें
प्रायः यह देखा गया है कि कीड़े, मकोड़े एवं रोग व्याधि लगने पर उसके निदान की ओर तुरंत ध्यान दिया जाता हैं लेकिन किसान खरपतवारों को तब तक बढ़ने देते हैं जब तक कि वे हाथ से उखाड़ने योग्य न हो जायें। उस समय तक खरपतवार फसल को काफी नुकसान कर चुके होते हैं। सोयाबीन के पौधे प्रारंभिक अवस्था में खरपतवारों से मुकाबला नहीं कर सकते। अतः खेत को खरपतवार रहित रखना आवश्यक होता हैं। यहां पर यह भी बात ध्यान देने योग्य हैं कि फसल को हमेशा न तो खरपतवार मुक्त रखा जा सकता हैं और न ही ऐसा करना आर्थिक दृष्टि से लाभकारी हैं। अतः क्रांतिक (नाजुक) अवस्था विशेषकर निंदाई करके खरपतवार मुक्त रखा जाये तो फसल का उत्पादन अधिक प्रभावित नहीं होता हैं। सोयाबीन में यह नाजुक अवस्था बोनी के 20-45 दिनों के बीच होती हैं।
खरपतवारों से कैसे निपटें
खरपतवारों की रोकथाम में ध्यान देने योग्य बात यह हैं कि खरपतवारों का नियंत्रण सही समय पर एक या एक से अधिक विधियां अपनाकर करें चाहे किसी भी प्रकार से करें। सोयाबीन की फसल में खरपतवारों की रोकथाम निम्नलिखित विधियों से की जा सकती हैं।
निवारक विधिः इस विधि में वे क्रियायें शामिल हैं जिनके द्वारा सोयाबीन के खेत में खरपतवारों को फैलने से रोका जा सकता हैं जैसे प्रमाणित बीजों का प्रयोग, अच्छी सड़ी कम्पोस्ट एवं गोबर की खाद का प्रयोग, खेत की तैयारी में प्रयोग किये जाने वाले यंत्रों की प्रयोग से पूर्व अच्छी तरह से सफाई इत्यादि।
यांत्रिक विधिः यह खरपतवारों पर काबू पाने की सरल एवं प्रभावी विधि हैं। सोयाबीनकी फसल में बुवाई के 20-45 दिन के बीच का समय खरपतवारों से प्रतियोगिता की दृष्टि से क्रांतिक होता हैं। अतः दो निंदाई से खरपतवारों की बढ़वार पर नियंत्रण पाया जा सकता हैं। पहली निंदाई बुवाई के 20-25 दिन बाद तथा दूसरी 40-45 दिन बाद करना ज्यादा लाभकारी होता हैं।
रसायनिक विधिः खरपतवार नियंत्रण के लिये जिन रसायनों का प्रयोग किया जाता हैं उन्हें खरपतवारनाशी (हर्बीसाइड) कहते हैं। रसायनिक विधि अपनाने से प्रति हेक्टेयर लागत कम आती हैं तथा समय की भी बचत होती हैं। लेकिन इन रसायनों का प्रयोग करते समय यह ध्यान रखें कि इनका प्रयोग उचित मात्रा में उचित ढ़ंग से तथा उपयुक्त समय पर हो अन्यथा लाभ की बजाय हानि की संभावना ज्यादा रहती हैं। सोयाबीन की फसल में प्रयोग किये जाने वाले विभिन्न खरपतवारनाशी रसायनों का विस्तृत विवरण सारणी में दिया गया हैं।
सोयाबीन में प्रयोग किये जाने वाले खरपतवारनाशी
क्र.
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खरपतवारनाशी
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मात्रा (कि.ग्रा.) सक्रिय पदार्थ/हे.
|
प्रयोग का समय
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नियंत्रित खरपतवार
|
1.
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पेन्डीमेथलिन
|
1.0
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बुवाई से पहले छिड़क कर भूमि में मिला दें।
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संकरी एवं कुछ चौड़ी पत्ती वाले
|
2.
|
मेटोलाक्लोर
|
1.0
|
बुवाई के बाद परन्तु अंकुरण से पूर्व
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संकरी एवं कुछ चौड़ी पत्ती वाले
|
3.
|
डायक्लोसुलम
|
0.22
|
तदैव
|
तदैव
|
4.
|
मेट्रीब्यूजिन
|
0.5
|
तदैव
|
तदैव
|
5.
|
सल्फेन्ट्राजोन
+ क्लोमेजोन
|
0.725
|
तदैव
|
तदैव
|
6.
|
इमाजेथापाइर
|
0.10
|
बुवाई के 15-20 दिन बाद
|
चौड़ी पत्ती वाले
|
7.
|
क्लोरीमुरान
|
0.015-0.020
|
तदैव
|
चौड़ी पत्ती वाले
|
8.
|
मेअसल्फ्यूरान
|
0.004-0.006
|
तदैव
|
चौड़ी पत्ती वाले
|
9.
|
क्वीजालोफाप-पी टेफुरिल
|
0.44
|
बुवाई के 15-20 दिन बाद
|
संकरी
|
10.
|
फेनोक्ससप्राप पी. इथाइल
|
0.70
|
बुवाई के 15-20 दिन बाद
|
संकरी
|
जल प्रबंधनः
खरीफ मौसम की फसल होने के कारण सामान्यतः सोयाबीन को सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। फलियों में दाना भरते समय अर्थात सितंबर माह में यदि नमी पर्याप्त न हो तो आवश्यकतानुसार एक या दो सिंचाई करना सोयाबीन के अधिक उत्पादन लेने हेतु लाभदायक है सोयाबीन में 7.5 सेमी. प्रति हेक्टेयर सिंचाई करें। सोयाबीन की फसल में यदि उचित जल प्रबंध नही है तो जो भी आदान उपयोग किये जाते है उसका समुचित उपयोग पौधों द्वारा नही हो पाता है। इसके साथ ही जड़ सड़न जैसी बीमारियों का प्रकोप बढ़ जाता है एवं नींदा निंयत्रण कठिन हो जाता है। जिसके फलस्वरूप, पौधों का विकास सीमित हो जाता है एवं उत्पादन में अनुरूप 30 से.मी. गहरी जल निकास नालियाँ अवश्य बनाये, जिससे अधिक वर्षा की स्थिति में जलभराव की स्थिति पैदा न हो। मेंड नाली एवं चैडी पट्टी नाली विधि की बुवाई, जल निकास में प्रभावी पायी गयी हैं।
सोयाबीन के प्रमुख कीट व्याधिक-
1. गर्डल बीटलः
पहचान- वयस्क भृंग 7 से 10 मि.मी लम्बा तथा मटमैले भूरे रंग का होता हैं। नर में अग्र पंखों का आधा भाग तथा मादा में एक तिहाई भाग गहरे रंग का होता हैं। श्रंृगिकायें शरीर की लम्बाई के बराबरया उससे लम्बी होती हैं। ग्रब पीले रंग की 19-22 मि.मी. लम्बी होती हैं। ग्रब का शरीर उभरा हुआ होता हैं तथा बगल से चपटा हुआ होता हैं।
क्षति के लक्षण- इस कीट की इल्ली (ग्रब) एवं वयस्क दोनों अवस्था हानिकारक होती हैं। इसका वयस्क पत्तियों की मुख्य शिरा पर पत्तियों के डंठलों को खुरचकर हानि करता हैं। मादा वयस्क द्वारा अण्डे निरोपण हेतु मुख्य तने पर पर समानांतर चक्र या गर्डल बनाये जाने पर उस स्थान से ऊपर का भाग सुखकर मुरझा जाता हैं। इल्ली द्वारा तने के अंदर सुरंग बनाने के कारण अधिकतम क्षति होती हैं। क्षतिग्रस्त पौधा मुरझा जाता हैं। मादा मुख्य तने या पत्तियों के डंठलों या शाखाओं पर दो समानान्तर चक्र अपने मुखांगों द्वारा बनाती हैं। दोनों चक्र के मध्य 1-1.5 से.मी. की दूरी होती हैं। चक्र बनाने के बाद निचले चक्र के पास मादा वयस्क तीन छिद्र बनाकर मध्य छिद्र में अंडा रखती हैं इल्ली पौधे के आंतरिक भाग को खाकर हानि करती हैं। ग्रसित पौधों में फल्ली संख्या, दाना की संख्या तथा दानों के वनज में क्रमशः 78.26 प्रतिशत्, 84.35 प्रतिशत् की कमी आंकी गई हैं।
नियंत्रण-
1. ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करें, जिससे भूमि में सुषुप्तावस्था में पड़ी इल्ली या भूमि की सतह पर आ जायें और कड़ी धूप के कारण नष्ट हो सकें।
2. सोयाबीन की बुवाई मानसून के पूर्व न करें। मानसून पूर्व बोई गई फसल कीट के आक्रमण के समय नाजुक अवस्था में होती हैं अतः कीट प्रकोप से हानि अधिक होती हैं। इससे बचने के लिए सोयाबीन की बुवाई मानसून आने के बाद करें।
3. पूर्व के वर्षों में इस कीट के अधिक प्रकोप से प्रभावित खेतों में सोयाबीन बुवाई के समय कार्बाफ्युरान 3 प्रतिशत् दानेदार 1.5 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व/हे. की दर से कतारों के बगल में डालें। इससे नवविकसित इल्लियों का प्रभावी नियंत्रण होता हैं।
4. यथासंभव सोयाबीन-ज्वार अंतरवर्ती फसल न लें क्योंकि ज्वार फसल के कारण सोयाबीन में चक्रक भृंग का प्रकोप शुद्ध सोयाबीन की अपेक्षा अधिक होता हैं।
5. खेतों के आस-पास खरपतवारों की साफ-सफाई करें, जिससे अन्य वैकल्पिक पोषक पौधों पर पल रही इस कीट की विभिन्न अवस्थायें नष्ट हो सकें।
6. फसल की नियमित निगरानी करते रहें। पौधों में चक्र बनना प्रारंभ होते ही 2-4 दिनों के अंदर ग्रसित पौधों के उन भागों को यथासंभव तोड़कर निकाल दें और नष्ट करें जिन पर चक्र बने हों। तोड़ते समय ग्रसित भाग को चक्र के कुछ नीचे से तोड़े, जिससे अंडा व नवविकसित इल्ली नष्ट हो सकें।
7. रासायनिक नियंत्रण हेतु अंडे दिखाई देना प्रारंभ होते ही क्विनाॅलफास 25 ई.सी. दवा का 0.05 प्रतिशत् घोल या सायपरमेथ्रिन 20 ई.सी. का 0.006 प्रतिशत् घोल 500-800 लीटर पानी में बनाकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें अथवा प्रोफेनोफाॅस 40 प्रतिशत् साइपरमेथ्रिन 4 प्रतिशत् ई.सी. का 1000-1500 मि.ली. प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।
2. तना मक्खीः
पहचान- वयस्क मक्खी छोटे आकार (2 मि.मी.) की चमकदार काले रंग की होती हैं। इसके पैर, श्रृंगिकायें तथा पंखों की शिरायें हल्के भूरे रंग की होती हैं। इसकी इल्ली जिसे मेगट कहते हैं, हल्के सफेद पीले रंग की बेलनाकार होती हैं, जिसकी लम्बाई लगभग 2 मि.मी. होती हैं। मेगट का अग्र भाग, जिसमें मुखांग होते हैं, नुकीला तथा पश्च भाग गोल या चपटा होता हैं। शंखी तने के अंदर की बनती हैं, जिसका रंग भूरा तथा लम्बाई 2-3 मि.मी. होती हैं।
क्षति के लक्षण- इस कीट की मगेट अवस्था ही हानिकारक होती हैं। नवविकसित मेगट पत्तियोंके डंठलों से तने के अंदर घुसती हैं और टेढ़ी-मेढ़ी सुरंग बनाती हैं। ग्रसित पौधों में प्रारंभ में पत्तियों का ऊपरी भाग सूख जाता हैं तथा अत्यधिक प्रकोप होने पर पूरा पौधा मुरझाकर मर जाता हैं। बड़े पौधे ग्रसित होने पर पीले पड़ जाते हैं और उनमें फलियाँ कम लगती हैं। कीट का प्रकोप आंतरिक होने से प्रारंभिक आक्रमण का पता नहीं लगता हैं, परंतु इन पौधों के तनों पर एक छोटा सा छिद्र दिखाई देता हैं, चूंकि इसकी शंखी भी तने के अंदर ही बनती हैं अतः इस छिद्र का उपयोग वयस्क मक्खी पौधे से बाहर निकलने में करती हैं। ग्रसित तनों को चीरने पर तना खोखला दिखाई देता हैं तथा मध्य भाग गहरा लाल या भूरे रंग का होता हैं। सामान्यतः 53 प्रतिशत् पौधों के ग्रसित होने पर यह उपज हानि लगभग 2.33 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हो जाती हैं।
नियंत्रण-
1. एक ही खेत में लगातार सोयाबीन की फसल न लें। फसल चक्र अपनाने से इस कीट की संख्या में प्रभावी रूप से कमी देखी गई हैं।
2. बोनी के समय कार्बोफ्युरान 3 प्रतिशत् दानेदार दवा 1.5 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व प्रति हेक्टेयर की दर से कूड़ों ने डाले या बोनी के 20-25 दिनों बाद इस कीटनाशक को कतारों के किनारों पर डालकर हल चला दें।
3. रासायनिक नियंत्रण हेतु क्विनालफाॅस 25 ई.सी. 800 मि.ली. दवा को 800 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करें।
4. कटाई पश्चात् फसल के शेष डंठलों को जलाकर नष्ट किया जा सकें।
3. सफेद लटः
पहचान- वयस्क भृंग बड़े आकार के ताम्बई रंग के तथा रात्रिचर होते हैं। सामान्यतः मानसून की प्रथम भारी वर्षा के बाद प्रकाश स्त्रोतों के समीप दिखाई पड़ते हैं इनकी इल्ली या ग्रब सफेद रंग की होती हैं। पूर्ण विकसित इल्ली का शरीर मोटा, मटमैला तथा अंग्रेजी के आकार C में मुड़ा होता हैं इसका सिर गहरे भूरे रंग का तथा मजबूत मुखांगों वाला होता हैं। ग्रब मिट्टी में पाया जाता हैं।
क्षति के लक्षण- इस कीट की इल्ली तथा वयस्क दोनों अवस्थायें हानिकारक होती हैं। यह एक सर्वभक्षी कीट हैं। वयस्क भृंग पौधें की पत्तियाँ खाते हैं जबकि इल्ली पौधों की जड़ों के पास रहकर हानि करती हैं। प्रकोपित पौधा सूखकर नष्ट हो जाता हैं। वयस्क भृंग अधिकतर शाम के समय सक्रिय रहकर पत्तियों को ऊपरी सतह से खाते हैं, जिससे पौधा पत्ती विहीन हो जाता हैं।
नियंत्रण-
1. ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करें।
2. वयस्क भृंगों को प्रकाश प्रपंच में आकर्षित कर नष्ट करें।
3. बोनी पूर्व बीजों का क्लोरपायरीफाॅस 20 ई.सी. दवा से 25 मि.ली./कि.ग्रा. की दर से उपचारित करें।
4. ग्रसित खेतों में बोनी के समय कार्बोफ्युरान 3 जी. दानेदार दवा की 15 कि.ग्रा./हे. की दर से हल के पीछे-पीछे प्रयोग करें।
5. खेतों के आस-पास के पेड़ों और झाड़ियों पर वयस्क निकलने के 3-4 दिनों बाद ही क्लोरपायरीफाॅस 20 ई.सी. का 0.05 प्रतिशत् घोल का छिड़काव कर वयस्क भृंग को नष्ट किया जा सकता हैं।
4. बिहार रोमिल इल्लीः
पहचान- इस कीट की सूंडियाँ प्रारंभ में झुण्ड में तथा बाद में इधर-उधर फैलकर पत्तियों को खाती है। पूर्ण विकसित सूंडी की लम्बाई लगभग 40-50 मि.मी. लम्बी होती हैं, जिसका सम्पूर्ण शरीर लम्बे भूरे रंग के बालों से ढ़ँका रहता हैं प्रौढ़ कीट पीताभी रंग के मध्यम आकार वाले होते हैं इनके पंखों तथा शरीर के पिछले खण्डों पर काले रंग के धब्बे होते हैं।
क्षति के लक्षण- इस कीट की सूंडी अवस्था हानि पहुँचाता हैं, यह पौधे के कोमल भागों विशेषकर पत्तियों को खाती हैं। नवजात सूंडियाँ झुण्ड में पत्तियों की सतह को बुरी तरह से खाती हैं, जिससे उनकी हरी पर्त समाप्त हो जाती हैं तथा केवल शिरायें ही दिखाई पड़ती हैं। पूर्ण विकसित सूंडियाँ पूरी की पूरी पत्तियों को खा जाती हैं, जिससे पौधों में केवल डंठल ही शेष रह जाते हैं।
नियंत्रण-
1. प्रकाश प्रपंच लगाकर बरसात के शरू से ही प्रौढ़ कीटों को आकर्षित करके नष्ट किया जा सकता हैं।
2. चूंकि ये अपने अण्डे समूह में देते हैं अतः पत्तियों का समय-समय पर निरीक्षण करके उन्हें नष्ट कर सकते हैं।
3. रासायनिक नियंत्रण हेतु क्लोरपायरीफाॅस 20 ई.सी. की 1.25 लीटर मात्रा की आवश्यक पानी में मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।
4. एन.पी.व्ही. 250 एल.ई. का छिड़काव अधिक प्रभावशाली सिद्ध हुआ हैं।
5. पर्ण सुरंगकः
पहचान- इसकी इल्ली काफी छोटी और गहरे हरे रंग की होती हैं। वयस्क कीट भूरे रंग की दो पंख वाले होते हैं तथा सिर गोलाकार और बड़ा होता हैं। वयस्क कीट का शरीर संकरा होता हैं।
क्षति के लक्षण- इस कीट की इल्ली अवस्था हानिकारक होती हैं। इल्ली पत्तियों में सुरंग बनाकर पत्तियों के उत्तकों को खाता हैं इसलिए इसे पर्ण सुरंगक कहा जाता हैं। प्रकोपित पत्ती आड़ी तिरछी सुरंगे दिखाई देती हैं। प्रकोपित पत्तियों को प्रकाश स्त्रोत के विपरीत रखने पर सुरंगों में इल्ली स्पष्ट दिखाई देती हैं। सुरंगों की संख्या अधिक होने पर पत्तियों की प्रकाश संश्लेषण क्रिया में बाधा उत्पन्न्ा होती हैं, जिससे पौध वृद्धि पर विपरीत प्रभाव पड़ता हैं।
नियंत्रण-
1. ग्रसित पत्तियों को तोड़कर नष्ट करें।
2. नीम बीज निचोड़ 5 प्रतिशत् का छिड़काव 15 दिनों के अंतराल पर खड़ी फसल में दो बार करें।
3. खड़ी फसल पर प्रोफेनोफाॅस 40 ई.सी. सायपरमेथ्रिन 4 ई.सी. (प्रोफेक्स) की 1000-1500 मि.ली. मात्रा की आवश्यक पानी के साथ मिलाकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें।
समेकित रोग प्रबंधन
समेकित रोग प्रबंधन वह पद्धति हैं जिसमें सभी उपलब्ध रोग नियंत्रण के निम्न तरीके एकीकृत किया जाकर रोग को नियंत्रित किया जाता हैं- गर्मी में गहरी जुताई, संतुलित उवर्रक प्रबंधन, सही किस्मों का चयन, बुवाई का समय, बीज दर व पौध संख्या, जल प्रबंधन, रोग ग्रस्त फसल अवशेषों को नष्ट करना, विकल्प परपोषी पौधों का निष्कासन, खरपतवार नियंत्रण, फसल चक्र व अन्र्तवत्र्तीय फसल, प्रतिरोधी किस्मों का प्रयोग आदि।
पत्ती धब्बा एवं ब्लाइट
पत्तों पर कई तरह के धब्बे वाले फफूंद जनित रोग हो जाते हैं और इस रोग के नियंत्रण हेतु कार्बेन्डाजिम या थायोफिनेट मिथाईल का 0.05% (50 ग्राम/100 ली. पानी) के घोल का 35-40 दिन में छिड़काव करें।
बेक्टेरियरल पश्चूल
इस रोग के नियंत्रण हेतु रोग रोधी किस्में जैसे एन.आर.सी-37 का प्रयोग करें। रोग का लक्षण दिखाई देने पर कासुगामाइसिन का 0.2% (2 ग्राम/ली.) घोल का छिड़काव करें।
गेरूआ
यह एक फफूंदजनित रोग हैं जो प्रायः फूल की अवस्था में देखा जाताा हैं जिसके अन्तर्गत छोटे-छोटे सूई के नोक के आकार के मटमेले भूरे व लाल भूरे सतह से उभरे हुये धब्बे के रूप में पत्तियों की निचली सतह पर समूह के रूप में पाये जाते हैं। धब्बों के चारों ओर पीला रंग होता हैं। इस रोग के नियंत्रण हेतु रोग रोधी किस्में जैसे जे.एस. 20-29, एन.आर.सी.-86 का प्रयोग करें। रसायनिक नियंत्रण के अन्तर्गत हेक्साकोनाजोल या प्रोपीकोनाजोल 800 मि.ली./हे. का छिड़काव करें।
चारकोल रोट
यह एक फफूंदजनित रोग हैं। इस बीमारी से पौधे की जड़े सड़ कर सूख जाती हैं। पौधे के तने का जमीन से ऊपरी हिस्सा लाल भूरे रंग का हो जाता हैं। पत्तियां पीली पड़ कर पौधे मुरझा जाते हैं। रोग ग्रसित तने व जड़ के हिस्सों के बाहरी आवरण में असंख्य छोटे-छोटे काले रंग के स्केलेरोशिया दिखाई देते हैं। रोग सहनशील किस्में जैसे जे.एस. 20-34 एवं जे.एस. 20-29, जे.एस. 97-52, एन.आर.सी.-86 का उपयोग करें। रसायनिक नियंत्रण के अन्तर्गत थायरम + कार्बोक्सीन 2:1 में 3 ग्राम या ट्रायकोडर्मा विर्डी 5 ग्राम/किलो बीज के मान से उपचारित करें।
ऐन्थे्रक्नोज व फली झुलसन
यह एक बीज एवं मृदा जनित रोग हैं। सोयाबीन में फूल आने की अवस्था में तने, पर्णवृन्त व फली पर लाल से गहरे भूरे रंग के अनियमित आकार के धब्बे दिखाई देते हैं। बाद में यह धब्बे फफूंद की काली संरचनाओं (एसरवुलाई) व छोटे कांटे जैसी संरचनाओं से भर जाते हैं। पत्तियों पर शिराओं का पीला-भूरा होना, मुड़ना एवं झड़ना इस बीमारी के लक्षण हैं। रोग सहनशील किस्में जैसे एन.आर.सी.-7 व 12 का उपयोग करें। बीज को थायरम + कार्बोक्सीन या केप्टान 3 ग्राम/कि.ग्रा. बीज के मान से उपचारित कर बुवाई करें। रोग का लक्षण दिखाई देने पर जाइनेब या मेन्कोजेब 2 ग्रा/ली. का छिड़काव करें।
पीला मोजेक
विषाणु जनित पीला मोजेक वायरस रोग व ब्लड व्लाईट रोग प्रायः एफिड्स सफेद मक्खी, थ्रिप्स आदि द्वारा फैलते है। अतः केवल रोग रहित स्वस्थ बीज का उपयोग करना चाहिए एवं रोग फैलाने वाले कीड़ों के लिए थायोमेथोक्जोन 70 डब्ल्यू.एस. से 3 ग्राम प्रति किलो की दर से उपचारित कर एवं 30 दिनों के बाद निम्न में से किसी एक दवा का छिड़काव करें तथा 15 दिनों के अन्तराल पर दोहराते रहें।
- इथोफेनप्राक्स 10 ई.सी. 1 लीटर प्रति हेक्टेयर
- मिथाइल डेमेटान 25 ई.सी. 0.75 लीटर प्रति हेक्टेयर
- टायमिथोएट 30 ई.सी. 0.75 लीटर प्रति हेक्टेयर
- थायोमिथोक्जेम 25 डब्ल्यू.जी. 100 ग्राम प्रति हेक्टेयर
पीला मोजेक प्रभावित क्षेत्रों में रोग के लिए ग्राही फसलों (मूंग, उड़द, बरबटी) की केवल प्रतिरोधी जातियाँ ही गर्मी के मौसम में लगायें तथा गर्मी की फसलों में सफेद मक्खी की नियमित नियंत्रण करें।
कटाई एवं गहाईः
अधिकांश पत्तियों के सूख कर झड़ जाने पर और 10 प्रतिशत फलियों के सूख कर भूरी हो जाने पर फसल की कटाई कर लेना चाहिए। जे.एस. 335, जे.एस. 72-44, जे.एस. 75-46 आदि सूखने के लगभग 10 दिन बाद चटकने लगती है। कटाई के बाद गट्टों को 2-3 दिन तक सुखाना चाहिए जब कटी फसल अच्छी तरह सूख जाये तो गहाई कर दोनों को अलग कर देना चाहिए। फसल गहाई थ्रेसर, ट्रैक्टर, बैलों तथा लकड़ी से पीटकर करना चाहिए (उपलब्धता अनुसार)।
स्त्रोत- भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली
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