निशी केशरी
डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय, पूसा

संरक्षित खेती में सामान्यतः सब्जियों तथा फूलों, फलों की बेमौसम में भी पैदावार ली जाती है। इस खेती को पाॅलीहाउस या नेटहाउस बनाकर उसके अंदर फसलों को लगाते हैं। पाॅलीहाउस में आसपास के तापमान से ज्यादा तापमान होता है तथा नेटहाउस में कम होता है जिसके कारण बेमौसमी फसलों का उत्पादन आसानी से हो जाता है।

संरक्षित खेती में तीन तरह से खेती की जाती है -

1. जियोपोनिक्स - इसमें फसलों को नेटहाउस या ग्रीनहाउस में प्राकृतिक मिट्टी में पौधों को सीधे उगाया जाता है।

2. हाइड्रोपोनिक्स- इसमें फसलों को मृदारहित बर्तनों में उगाया जाता है। इन बर्तनों में पुआल का पाउडर वर्मीकुलाइट तथा पीट मिलाया जाता है पर मिट्टी नहीं।

3. ऐरोपोनिक्स- इसमें फसलों को बर्तनों में उगाया तो जाता है परन्तु इनकी जड़ों पर पोषक पदार्थों का छिड़काव किया जाता है।

संरक्षित खेती में पौधों की देखभाल बहुत अच्छे तरीके से की जाती है, क्योंकि इनमें बेमौसमी तथा विदेशी फसलों का उत्पादन लिया जाता है इसलिए इनकी मिट्टियाँ काफी उपजाऊ तथा वातावरण बहुत अच्छा होता है जो किसी भी सूत्रकृमि के जनसंख्या वृद्धि के लिए बहुत ही उपयुक्त होता है। सूत्रकृमि के अतिरिक्त संरक्षित खेती में बहुत सारे कीटों तथा माइट को भी देखा गया है। विषाणुजनित बीमारियाँ भी अक्सर इन फसलों पर बहुत तेजी से आक्रमण करती हैं। सूत्रकृमि चूँकि ज्यादातर मिट्टी में ही पाये जाते हैं, इसलिए इनके संक्रमण का मुख्य स्त्रोत मिट्टी तथा बिचड़े होते हैं। सूत्रकृमि की विभिन्न प्रजातियों में जड़गाँठ सूत्रकृमि, वृक्काकार सूत्रकृमि तथा जड़ विक्षत सूत्रकृमि की जनसंख्या संरक्षित खेती में बहुतायत से पायी जाती है। इनमें जड़गाँठ सूत्रकृमि की समस्या सबसे ज्यादा है। ये सूत्रकृमि जड़ों पर आक्रमण करते हैं इसलिए बहुत से किसानों को इसकी जानकारी नहीं होती।

जड़गाँठ सूत्रकृमियों जड़ों को भेदकर अपना भोजन लेती हैं और इन जड़ों पर छोटे- बड़े गाँठ बना देती है। इनके लगातार भोजन लेने की प्रक्रिया के कारण पौधे कमजोर हो जाते हैं, पत्ते पीले पड़ने लगते हैं और कुपोषित नजर आते हैं क्योंकि ये सूत्रकृमियाँ पौधों में जड़ों से पत्तों तक जल तथा खनिज लवणों का संचार को रोक देती हैं।

जड़गाँठ सूत्रकृमि के अण्डों से द्वितीय अवस्था वाले शिशु निकलते हैं जो जड़ों को संक्रमित करते हैं और जड़ों के बीच वाली उत्तकों के पास आकर वहीं एक जगह बैठकर अपने चारों ओर की कोशिकाओं का द्रव बारी-बारी से लेते रहते हैं। लेकिन, इस दौरान सूत्रकृमि के मुँह से कुछ एन्जाइम का स्त्राव होता है जिनमें वृद्धि हार्मोन होते हैं। ये हार्मोन कोशिकाओं का आकार बढ़ा देते हैं जो गाँठ के रूप में हमें दिखते हैं। इस परिवर्तन के कारण स्वस्थ उत्तकें खराब हो जाती है तथा बीच वाली उत्तकों को खाने के कारण जड़ें मिट्टी से जल तथा खनिज लवण नहीं ले पाते हैं।

सूत्रकृमि प्रबंधन के तरीकेः-
संरक्षित खेती में पौ.प. सूत्रकृमियों की संख्या समान्य खेतों से ज्यादा हो जाती है। इसलिए इनका नियंत्रण करना बहुत ही आवश्यक हो जाता है।

1. मृदा सौर्यीकरणः संरक्षित खेती में सूत्रकृमि के अतिरिक्त कीट, फफूँद, खर-पतवार इत्यादि मृदाजनित सूक्ष्मजीवों द्वारा पौधे संक्रमित होते हैं। इसलिए खेतों में पानी का जमाव, मृदा सौर्यीकरण इत्यादि का इस्तेमाल किया जाता है। सूत्रकृमि, विशेषकर जड़गाँठ सूत्रकृमि को नियंत्रित करने के लिए सूत्रकृमि नाशक दवाओं का इस्तेमाल मिट्टी को प्रदूषित कर सकता है। इसलिए इनकी जगह प्राकृतिक तरीकों का इस्तेमाल, जैसे मृदा सौर्यीकरण का इस्तेमाल काफी असरकारक है। इन्हें एकीकृत जैविक नियंत्रण के अन्तर्गत इस्तेमाल करना चाहिए।

इस विधि को सर्वप्रथम इजरायल में 1970 में जड़गाँठ सूत्रकृमि के नियंत्रण के लिए इस्तेमाल किया गया था जो अब सारे संसार में फैल गया है। इस तकनीक में पतले, पारदर्शी पाॅलीथीन की चादर को जिसकी मोटाई 25-30 माइक्रोमीटर होती है, हल्के गीले मिट्टी के ऊपर डालकर अच्छे से किनारों को 6-12 सप्ताह के लिए बंद किया जाता है ताकि मिट्टी के अन्दर का तापमान इतना बढ़ जाये जो सूत्रकृमियों के लिए हानिकारक हो। पाॅलीथीन मिट्टी से ताप एवं वाष्पोत्सर्जन को वातावरण में जाने से रोकता है। यह ताप पाॅलीथीन के अन्दर की सतह पर छोटी-छोटी बूँदों के रूप में नजर आता है। यह विधि किसानों के लिए काफी फायदेमंद है क्योंकि यह विधि काफी सस्ती, आसानी से इस्तेमाल की जाने वाली, रसायनरोधी, कारगर तथा किसी भी बदबू तथा विष से रहित होती है। मृदा सौर्यीकरण के द्वारा मिट्टी के ऊपर की 30 सेमी मोटी सतह उपचारित हो जाती है, जो छोटे जड़ों वाली पौधों तथा कम समय वाले पौधों के लिए कारगर होती है।

लेकिन यह विधि गहरी जड़ों वाले पौधों या वृक्षों के लिए उपयुक्त नहीं है। मृदा सौर्यीकरण के साथ फफूँदनाशी, खरपतवारनाशी इत्यादि का कम मात्रा में इस्तेमाल कर बेहतर सूत्रकृमि नियंत्रण किया जा सकता हैं। उच्च तापक्रम पर उपयुक्त रसायनों की क्रिया तेजी से होने लगती है। मृदा सौर्यीकरण को फसलों के अवशेषों, हरे अवशेषों पशु अवशिष्ट तथा अजैविक खादों के साथ भी इस्तेमाल किया जा सकता है। ये सभी मृदा में कुछ यौगिकों का स्त्राव करते हैं जो फायदेमंद सूक्ष्मजीवों की संख्या को मृदा में बढ़ा देते हैं, जैसे जडगाँठ सूत्रकृमि का नियंत्रण उपर्युक्त दोनों तकनीकों के इस्तेमाल से काफी कम किया गया है तथा उत्पादन अधिक ली गई है।

स्वच़्छता का ध्यान: वर्तमान समय में, ऐसी कोई भी सूत्रकृमिनाशी उपलब्ध नहीं है जो संरक्षित खेती के लिए उपयुक्त हो यदि उसमें सूत्रकृमियों का आक्रमण हो गया हो। इसलिए जैसे ही पहला लक्षण दिखे उसी समय तुरनत संक्रमित बिचड़ों या पौधों को खेतों से निकालकर जला देना चाहिए और उसके बाद हाथों, जूतों औजारों तथा किसी भी तरह के यंत्रों को संरक्षित खेती के बाहर ही विसंक्रमित कर देना चाहिए। सिंचाई के लिए भी जीवाणुरहित जल का इस्तेमाल करना चाहिए।

उचित जगह का चुनाव: संरक्षित खेती के लिए सही जगह का चुनाव बहुत ही महत्वपूर्ण है। किसी भी नये पाॅलीहाउस के निर्माण के लिए वहाँ की मिट्ठी की जाँच बहुत ही आवश्यक हैताकि यह पता चल सके कि सूत्रकृमियों की संख्या मिट्ठी में कितनी है। मिट्ठी में जल का उचित निकास होना चाहिए तथा मिट्ठी बलुआही और हल्की होनी चाहिए जिससे कि जल जमाव न हो। मिट्टी का प्रकार भी सूत्रकृमि की जनसंख्या को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है जैसे मृदा के बडे आकार के कण जडगांठ सूत्रकृमि एवं कुछ कवकों के परस्पर क्रिया के कारण पौधों में होनेवाली बीमारियों में इजाफा होता है। गी्रनहाउस या पाॅलीहाउस को वैसी जगहों पर नहीं बनाना चाहिए जहाँ कहीं और का जल निकास आता हो।

पुराने पाॅलीहाउस में कटाई से पहले या पुरानी फसल के हटाने के बाद मिट्टी के नमूने की जाँच सूत्रकृमि की संख्या की जाँच करने के लिए होना चाहिए क्योंकि इनका संक्रमण पुराने पौधों की जडों से नये पौधों में हो सकता है। सूत्रकृमि का संक्रमण एक बार हो जाने के बाद सूत्रकृमिरोधी पौधों का चुनाव करना मुश्किल हो जाता है। जडगांठ सूत्रकृमि तकरीबन सभी फसलों पर आक्रमण करते हैं। मिट्टी में सूत्रकृमि की बहुत प्रकार की प्रजातियाँ पायी जाती हैं। उनकी आनुपातिक संख्या के आधार पर ही नियंत्रण के उपाय अपनाये जा सकते हैं। इसलिए सूत्रकृमि की संख्या का घनत्व तथा उनका किसी भी चयनित जगह के लिए फैलाव किसी भी फसल को लगाने के पहले जाँच लेना चाहिए।

फसल चक्र: फसल चक्रखुले खेतों के लिए काफी उपयोगी है क्योंकि यहां किसानों को दूसरे फसल जिनपर सूत्रकृमि आक्रमण नहीं करते, को लगाने का विकल्प मिलता है क्योंकि पाॅलीहाउस में लगने वाले फसलों की संख्या काफी कम है और जिन फसलों का चुनाव होता है वे फसलें काफी ज्यादा आर्थिक आमदनी देनेवाली फसलें होती हैं। फसल चक्र की विधि उन फसलों के लिए सबसे ज्यादा असरकारक होती है जिन फसलों पर सूत्रकृमि का आक्रमण न होता हो। जड़गााँठ सूत्रकृमि बहुत सारे फसलों पर आक्रमण करते हैं जिससे किसानों को फसल चक्र के लिए दूसरे फसलों का विकल्प नहीं मिल पाता। लेकिन फिर भी जड़गााँठ सूत्रकृमि के आतंक से फसलों को बचाने के लिए गेंदे की फसल या शिमला मिर्च की फसल ले सकते हैं।

खेतों को परती छोडना: पाॅलीहाउस में जब फसल न लगाना हो तब इस समय उसे खाली छोडना सूत्रकृमि के आतंक से बचाने के लिए काफी उपयोगी है। जब सूत्रकृमियों को पौधों की जडें नहीं मिलेंगी तो उनकी संख्या में धीरे धीरे कमी आ जाएगी क्योंकि उन्हें खाने के लिए कुछ नहीं मिलेगा और वे भूख से मर जाएंगे।

मिट्टी को पानी से भरना: पाॅलीहाउस की मिट्टी को कुछसमय तक पानी से भरकर रखना भी मिट्टीमें सूत्रकृमि की संख्या को कम करने में सहायता करता है क्योंकि इसमें सूत्रकृमियों को ऑक्सीजन नहीं मिल पाता जोकि इनके जीवन चक्र के लिए आवश्यक है। दो से तीन सप्ताह के अंतराल पर मिट्टी को पानी से भरना तथा सूखा छोडना काफी असरकारक देखा गया है। अगर किसी खेत की मिट्टी के नमूने में पौधा परजीवी सूत्रकृमि जैसे जडगाँठ सूत्रकृमि या वृक्काकार सूत्रकृमि की संख्या उचित मात्रा में उपस्थित हो तो ऐसी मिट्टी में सूत्रकृमि अवरोधी फसलें या वैसी फसलें लगा सकते हैं जिसपर सूत्रकृमि का आक्रमण न हो।

सूत्रकृमिनाशी दवाओं का इस्तेमाल: सूत्रकृमिनाशी दवाओं में धुँएवाली दवा जो मिट्टी में जाकर सूत्रकृमि को मारती है, काफी असरकारक है परन्तु इन दवाओं पर रोक लग गयी है इसलिए अब दूसरी दवाओं जैसे एल्डीेकार्ब, ऑक्सामिल, फेनामिफाॅस, प्रोफाॅस, कार्बोफ्यूरान इत्यादि दवाओं का इस्तेमाल करना चाहिए।

मिट्टी में कार्बोफ्यूरान (3जी) का 6 ग्राम प्रति वर्ग मीटर या कैप्टान का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर इस्तेमाल करने से जडगाँठ सूत्रकृमि की समस्या का निदान किया जा सकता है। समेकित सूत्रकृमि प्रबंधन में जैविक सूत्रकृमिनाशी जैसे ट्राइकोडर्मा हार्जिएनम को 1 किलो प्रति 500 ग्राम गोबर की खाद में मिलाकर या जीवाणु जैसे सूडोमोनास फ्लुओरेसेन्स 1 लीटर प्रति 500 ग्राम गोबर की खाद में मिलाकर खेत तैयार करने के एक महीने पहले डालना चाहिए। ऐसे तैयार जैविक सूत्रकृमिनाशी को खेत तैयार करने के समय इस्तेमाल किया जा सकता है।

भविष्य की रुपरेखा: पाॅलीहाउस में फसलों की क्षति केवल एक ही पादप परजीवी सूक्ष्मजीव से नहीं होती है बल्कि इसके लिए सारे सूक्ष्मजीवों के आपसी अंतःक्रिया के कारण परस्पर प्रभाव पडता है। इसलिए इसके प्रबंधन के लिए ऐसे उपाय अपनाने चाहिए जो सभी मृदाजनित पादप परजीवीयों को कम कर सके। इसके लिए किसी भी पाॅलीहाउस की फसल में सूत्रकृमि प्रबंधन के उपाय जैसे फसलों की सूत्रकृमिरोधी प्रजातियाँ, स्वस्थ बिचडे, पाॅलीहाउस के अंदर स्वच्छता का ध्यान रखना, बिजाई से लेकर कटाई तक प्रत्येक अवस्था में सूत्रकृमियों की संख्या की निगरानी करते रहना, जैविक सूत्रकृमिनाशी का सावधानी से इस्तेमाल आदि उपायों का प्रयोग होना चाहिए।

वर्तमान में सघन खेती में वृद्धि, एकीकृत नाशीजीव प्रबंधन के समय पादप परजीवी सूत्रकृमियों का ध्यान रखना बहुत ही आवश्यक है।