उमा, पी.एच. डी. (स्काॅलर उधानिकी) सब्जी विज्ञान विभाग
इंदिरा गांधी कृषि महाविद्यालय रायपुर (छ.ग)
डॉ. पद्माक्षी ठाकुर, सहायक प्राध्यापक सब्जी विज्ञान विभाग
टोसन कुमार साहू ,एम. एस. सी. (कृषि) सस्य विज्ञान
शहीद गुण्डाधूर कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र जगदलपुर (छ.ग.)

उधानिकि अरबी एक कन्दीय फसल है, जिसकी खेती मुख्यतः खरीफ एवं रबी में की जाती है। इसका वानस्पतिक नाम कोलोकेसिया एस्कुलेंटा है तथा अरेसी कुल में आता है। इसकी उत्पत्ति दक्षिण मध्य एशिया मानी जाती है। पूरे भारत वर्ष में इसकी खेती कंदो के लिए की जाती है। इसे कोचई के नाम से भी जाना जाता है। छत्तीसगढ़ में इसे स्थानीय रुप से ‘‘कोचाई कादां’’ के नाम से जाना जाता है। छत्तीसगढ़ में इसकी खेती प्रायः सभी जिलों में किया जाता है, क्षेत्रफल की दृष्टि से कबीरधाम, कोंडागांव, बस्तर, राजनादगांव, कोरिया एवं दंतेवाड़ा जिलो मे ज्यादातर अरबी की खेती किया जाता है। उपर्युक्त जिलेां में सबसे ज्यादा कबीरधाम में 0.652 हेक्टेयर क्षेत्रफल में 13.040 हजार मिट्रिक टन उत्पादन एवं उत्पादकता 20 मिट्रिक टन प्रति हेक्टेयर वर्ष 2022 में उद्यानिकी एवं प्रक्षेत्र वानिकी विभाग छत्तीसगढ़ के द्वारा दर्ज किया गया।

अरुम कुल में अरबी सबसे महत्वपूर्ण सब्जी वाली फसल है, इसमें पानी (63.85%), प्रोटीन (1.3-4.0%), वसा (2.0-4.0%), कार्बोहाइड्रेट (13-29%), और विटमिन बी और सी प्रचुर मात्रा में मौजूद होती है। प्रोटीन का स्तर कसावा और शकरकंद से अधिक होता है। इसके अलावा इसमें थायमिन, राइनाफलेविन, लोहा, फास्फोरस, जस्ता आदि का एक अच्छा स्त्रोत हैं। अरबी में बीटा कैरोटिन मौजूद होता है। बीटा कैरोटिन विटामिन ए बनाने में मुख्य भूमिका निभाता है।

अरबब के कंद, पत्ते और डंढलो का उपयोग सब्जी के रुप में किया जाता है। इसके अलावा पशु आहार के रुप में भी प्रयोग किया जाता है। आटा, ब्रेड और कुरकुरे चिप्स जैसी पौष्टिक चीजे भी बनायी जाती है।

बुवाई का समय:
अरबी की बुवाई फरवरी माह के प्रथम सप्ताह और मई के प्रथम सप्ताह से जून तक की जा सकती है।

जलवायु एवं मिट्टी:
अरबी एक गर्म मौसम की फसल है इसमें प्रति वर्ष 120-150 मिमी वर्षा की आवश्यकता है।

अरबी की खेती विभिन्न प्रकार के मिट्टी में की जा सकती है लेकिन यह रेतीली दोमट मिट्टी सबसे ज्यादा उपयुक्त होती है, जिस मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा अधिक होती है, इसकी खेती के लिए सवोत्तम मानी जाती है। अरबी के खेतों में पानी अधिक समय तक भरा रहने से अरबी के पौधे सड़ने की अधिक सम्भावना होती है। अतः जल निकास की उचित व्यवस्था होना आवश्यक है। अरबी की खेती के लिये 5.5-7 पी.एच.मान उपयुक्त माना जाता है।

उन्नत किस्मेंः-

इंदिरा अरबी -1: यह किस्म छत्तीसगढ़ के लिए सबसे अच्छे उत्पादन वाली किस्म है। यह किस्म 150 - 180 दिन में तैयार हो जाती है। झुलसा रोग के प्रति सहनशील होती है। प्रति हेक्टेयर 22 टन उपज प्राप्त होती है।

छ.ग. अरबी-2: यह किस्म पानी भराव सहनशील, खरीफ में उत्पादन हेतु उपयुक्त मानी जाती है। इसके कन्दों में खुजलाहट नहीं होता है तथा पाकगुणवत्ता बहुत अच्छी होती है। इस फसल की अवधि 170-180 दिनों का होता है जिससे 22 टन प्रति हेक्टेयर प्राप्त होता है।

राजेन्द्र अरबी-1ः यह किस्म खरीफ एवं रबी दोनों मौसम मे खेती के लिए उपयुक्त होता है। यह किस्म सब्जी के लिए उपयुक्त मानी जाती है एवं 16-18 टन तक उपज प्राप्त होता है।

पंचमुखीः यह शीघ्र परिपक्व होने वाली कन्द है। इस किस्म के पत्तियों का उपयोग सब्जी बनाने के लिए किया जाता है। यह किस्म 180 दिन में तैयार हो जाता है एवं यह सबसे अधिक 23 टन प्रति हेक्टेयर उपज देने वाली किस्म है।

संतमुखीः यह किस्म सब्जी तथा बाजार के लिए उपयुक्त है। यह किस्म 160-180 दिन में तैयार हो जाती है। इसकी औसत उपज 22 टन प्रति हेक्टेयर है।

बीज की मात्रा एवं बीजोपचारः
अरबी का प्रवर्धन मुख्यतः वानस्पतिक रुप से किया जाता है, ज्यादातर 20-25 ग्राम वजन वाले छोटे कंदो द्वारा किया जाता है। रोपण के लिए 25-35 ग्राम प्रत्येक पाश्र्व कंद का प्रयोग करें। एक हेक्टेयर रोपण के लिए लगभग 1200 किलोग्राम वजन के लगभग 37,000 पाश्र्व कंदो की आवश्यकता होती है।
बोने से पहले कंदो को कार्बोन्डाजिम 12 प्रतिशत या मेन्कोजेब 63 प्रतिशत डब्ल्यू.पी. 01 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल में 10 मिनट डुबोकर उपचारित कर बुवाई करना चाहिए।

बुवाई की विधिः
अरबी फसल की बुवाई दो प्रकार से की जाती है-

1. समतल क्यारियों में बुवाई- कतारो की आपसी दूरी 60 से.मी. तथा पौध की दूरी 45 से. मी. और कंदो को 05 सेंमी. की गहराई पर बोया जाता है जिससे अंकुरण अच्छा होता है।

2. मेड़ बनाकर बुआई- दो मेड़ो की बीच की दूरी 60 सेमी. रखा जाता है और मेड़ के दानों किनारो पर 45 से.मी. की दूरी पर कन्दों की बुवाई करें। बुवाई के बाद कन्द को मिट्टी से अच्छी तरह ढक देना चाहिए।

भूमि की तैयारीः
सर्वप्रथम भूमि को मिट्टी पलटने वाले हल से जुताई करके मिट्टी तैयार किया जाता है जिसके बाद कल्टीवेटर या देशी हल से 2-3 जुताई कर मिट्टी को भूरभूरा किया जाता है। अरबी की खेती के लिए आमतौर पर कन्द का उपयोग रोपण के लिए किया जाता है भारतीय परिस्थितियों में टीलो में लगाए जाने पर उच्च कंद की पैदावार दर्ज किया गया है।

खाद एवं उर्वरकः
अरबी की फसल का समुचित विकास और अच्छे उत्पादन के लिए 10-15 टन प्रति हेक्टेयर गोबर खाद की आवश्यकता होती है,, जिसे बुवाई से पहले खेत में अच्छी तरह मिलाना चाहिए। साथ ही 80 किलो नाइट्रोजन, 60 किलो फास्फोरस, और 60 किलो पोटाश देना चाहिए। नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फास्फोरस पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई के समय डालना चाहिए, जबकि शेष नाइट्रोजन की आधा मात्रा बुवाई के 35-45 दिन बाद निराई गुड़ाई और मिट्टी चढ़ाते समय डालना चाहिए।

सिंचाई एवं निराई गुड़ाईः
रबी की फसल में अधिक सिंचाई की आवश्यकता होती है । खेत में नमी कम होने पर 6-7 दिन के अंतर में सिंचाई करते रहना चाहिए। खरीफ के समय में प्रायः सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है, फिर भी खेत में नमी कम होने पर 15-20 दिन पर सिंचाई आवश्यक हैै। फसल की वृद्धि के समय भूमि में नमी की कमी नहीं होनी चाहिए क्योंकि कदों के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, जिससे उपज में भारी कमी हो जाती है। कदों पर मिट्टी चढ़ाना आवश्यक है, जिससे कन्दो का विकास अच्छा होगा। खुदाई के एक माह पूर्व सिंचाई बंद कर देना चाहिये, जिससे नये पत्ते नही निकलते है, और फसल पूर्ण रूप से परिपक्व हो जाता है।

अरबी की फसल के साथ अनेक खरपतवार उग आते हैं, जो भूमि से नमी एवं पोषक तत्वों को ले लेती है, जिसके कारण पौधों को पर्याप्त मात्रा में पोषक तत्व उपलब्ध नहीं हो पाते हैं, जिससे पौधों के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अतः खरपतवारों को नष्ट करने के लिए कम से कम 2-3 बार निराई-गुड़ाई करें तथा पहली निराई - गुड़ाई बुवाई के 45 दिन बाद व दूसरी 60 दिन बाद करें निराई गुड़ाई के पश्चात पुनः मिट्टी चढ़ाना चाहिए क्योंकि यह टयूबराइजेशन (कन्द बनने की प्रक्रिया) को बढ़ावा देता है।

फसल खुदाई और बाद का प्रबंधनः
अरबी की खुदाई कंदों के आकार, प्रजाति, जलवायु और भूमि की उर्वरा शक्ति पर निर्भर करती है। फसल लगाने की 120 - 150 दिन बाद तैयार हो जाती है जब पत्तियां पीली होने लगती है, जो परिपक्वता का संकेत है। फसल कटाई के समय खेत में पर्याप्त मात्रा में नमी होनी चाहिए ताकि कंद आसानी से फावड़े या अन्य हाथ के औजारों की सहायता से निकाला जा सके ।

कटाई के बाद क्षतिग्रस्त कंधों को विपणन स्थल से अलग करते हैं विपणन उद्देश्य के लिए चुने गए कंदों को 1 दिन के लिए छायादार स्थान पर फैला देना चाहिए। और पैकिंग से पहले कंदों से मिट्टी को हटा देना चाहिए, तत्पश्चात जुट की बोरियों या टोकरीयों मे पैक करने से भंडारण के दौरान सड़न नहीं होती है और लंबे समय तक रखा जा सकता है।

उपजः
अरबी की उपज कई बातों पर निर्भर करती है जिसमें किस्म, भूमि की उर्वरा शक्ति एवं फसल की देखभाल प्रमुख है आमतौर पर 20 - 25 टन प्रति हेक्टेयर तक उपज प्राप्त कर सकते हैं ।

अरबी में लगने वाले मुख्य रोग एवं कीट

झुलसा रोगः
(फफूंद फाइटोफथोरा) पत्तों के उपरी सतह पर छोटे काले गोल धब्बे दिखाई देते है जो तेजी से फैलकर पीले और भूरे रंग के धब्बे बन जाते है और पूरे पत्तियो में फैल जाते है और पत्तियों में क्लोरोफिल को नष्ट कर देता है। और प्रकाश संश्लेषण को कम कर देता है, जिससे 25-50 प्रतिशत उपज की हानि होती है।
इसकी रोकथाम के लिए फफूंद नाशक जैसे डाइथेनएम 45 (0.2 प्रतिशत) अथवा रिडोमिल 0.1 प्रतिशत की दर से घोल बनाकर 10 दिन के अन्तराल पर दो से तीन छिड़काव करना चाहिये

दसीन मोजाइक: 
इस रोग के प्रभाव से पत्तियां पीली हो जाती है। जिसके परिणामस्वरुप यह पूरी पत्तियों में फैल जाती है। पत्तिया तथा पौधें छोटे रह जाते है यह रोग की गहन स्थिति में पत्तों का आकार बिगड़ जाता है। इसकी रोकथाम के लिए संक्रमित पौधों को निकाल देना चाहिए और लगाने से पहले बीज उपचार करके लगाना चाहिए।

कीट
सूंडी व मक्खी कीट  
अरबी की पत्तियों को खाने वाले कीड़ों सूड़ी व मक्खी कीड़ो द्वारा हानि होती है क्योंकि यह कीड़े नई पत्तियों को खा जाते है जिससे पौधों का विकास रूक जाता है। इसकी रोकथाम के लिए प्रोफेनोफ्रांस 50 ई.सी. साइपरमेथ्रिन 3 ई.सी. 01 मि.ली. प्रति लीटर घोल बनाकर छिड़काव करें।

स्क्ल कीट (एस्पिडिएला हरती)
इसके प्रकोप से पौधे मुरझााते और सूखते दिखाई देते है। जिससे उपज में अधिक कमी होती है। नियंत्रण के लिए 0.1 प्रतिशत डाइमेथोएट में रोपण से पहले तथा कीट रहित बीज कंदो का उपयोग किया जाना चाहिए। उपचार करके बुआई करना चाहिए।

मिलीबग्स (स्यूडोकोकस साइट्रिकुलस राइजोकस एस.पी)
निम्फ और वयस्क भोजन के लिए कंद की सतह को कवर करते है। तथा धीरे-धीरे कन्द को खाने लगती है। कीट का प्रयोग अधिक हो तो बुवाई से पहले डायमेथोएट (0.05%) छिड़काव करके इसके आगे प्रसार को रोका जा सकता है।