पद्माक्षी ठाकुर, विकास रामटेके एवं उपेन्द्र कुमार नायक
श.गु.कृ.महा. एवं अनुसंधान केन्द्र, जगदलपुर
देवशंकर राम
निर्देशक विस्तार सेंवायें इ.गा.कृ.वि.वि.,रायपुर (छ.ग.)
वानस्पतिक नामः डाइस्कोरिया बल्बीफेरा
कुलः डाइस्कोरिएसी
एरियल याम (डायोस्कोरिया बल्बिफेरा ), कुल: डाइस्कोरिएसी, जिसे स्थानीय रूप से छत्तीसगढ़ में डांगकांदा, लाट कान्दा और नार कांदा इत्यादि के नाम से जाना जाता है। यह कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन, विटामिन का एक समृद्ध स्रोत है और कैलोरी भी प्रचुर मात्रा मे पायी जाती है। डांगकांदा खरीफ मौसम की फसल है और इसे वर्षा आधारित फसल के रूप में उगाया जाता है। डांगकान्दा छत्तीसगढ़ के ज्यादातर आदिवासी जिलों के सभी किसानों के बाड़ी या किचन गार्डन में उगाई जाने वाली एक छोटी कंद फसल है। डांगकान्दा के बलबिल में 6.25: प्रोटीन होता है। एरियल याम एक ऐसी कंद फसल है जिसकी बाजार में अधिक मांग है। छत्तीसगढ़ में देवउठनी पर्व पर नवम्बर माह में 60-80 रु़ प्रति किग्रा होता है। डायोस्कोरिया बल्बिफेरा पारंपरिक रूप से ग्लाइसेमिक इंडेक्स को कम करने के लिए उपयोग किया जाता है, इस प्रकार यह अधिक ऊर्जा प्रदान करता है और मोटापे और मधुमेह के खिलाफ बेहतर सुरक्षा प्रदान करता है। इसमें कैंसर रोधी गुण भी होते हैं।
गुण एवं उपयोग
इस कन्द का कंदीय फल (बलबिल्स) को खाने हेतु उपयोग किया जाता है। डांग कान्दा का बलबिल्स प्रोटीन एवं सूक्ष्म पोषक तत्वों से परिपूर्ण होता है। छ.ग. के ग्रामीण क्षेत्रों में बलबिल्स को उबालकर तथा भूनकर गर्भवती महिलाओं को खिलाया जाता है। यह जानकारी सर्वे से प्राप्त हुआ है। डांग कान्दा के कन्द फल या बलबिल्स को भूनकर एवं भांप से उबालकर खाने हेतु उपयोग किया जाता है। बस्तर में इस कन्द फल को उबालकर देवी देवताओं को भोग लगाने हेतु एवं पूजा अर्चना के समय उपयोग किया जाता है।
मृदा
डांगकांदा की खेती हेतु अच्छी जल निकास वाली, ढीली भूरभूरी, बलूई दोमट मृदा जिसमें कार्बनिक पदार्थो की मात्रा अधिक पी.एच.मान 5.0-7.0 हो ऐसी भूमि उपयुक्त पाई गई है। डांगकांदा एक बार स्थापित हो जाने के पश्चात् सूखा सहन कर सकता है। डांग कांदा कीे रोपाई सभी प्रकार के मृदा में की जा सकती है लेकिन बलुई दोमट, कार्बनिक तत्वों वाली एवं अच्छी जल निकास वाली मृदा उपयुक्त होती है।
जलवायु
डांगकांदा की उचित बढ़वार एवं कंद बनने हेतु आर्द्र जलवायु औसत तापमान 25 डिग्री से. से 30 डिग्री से. तथा मृदा में उचित नमी का होना आवष्यक है। बहुत कम तापमान डांगकांदा के लिए नुकसान दायक होता है। डांग कान्दा का उत्पादन खरीफ ऋतु में की जाती है। यह पूर्णतः वर्षा आधारित कन्दीय फसल है। छ.ग. के सभी जिलोें में इसकी खेती की जा सकती है।
उन्नत किस्में
श.गु. कृषि महाविद्यालय एवं अनुसंधान केन्द्र जगलपुर में अखिल भारतीय समन्वित कन्द फसल अनुसंधान परियोजना के अन्तर्गत निम्नलिखित अधिक उपज देने वाले जननद्रव्यों की पहचान की गई है। आई.जी.डी.बी.-2, आई.जी.डी.बी.-3, आई.जी.डी.बी.-4,आई.जी.डी.बी.-5, आई.जी.डी.बी.-6, आई.के. डायो.-04-11, आई.के. डायो.-04-12, आई.के. डायो.-04-16, आई.के. डायो.-04-18, आई.के. डायो.-04-32, आई.के. डायो.-04-34, आई.के. डायो.-04-35, आई.के. डायो.-04-38, आई.के. डायो.-04-40 एवं आई.के. डायो.-04-80।
छत्तीसगढ़ डांग कांदा-1, छत्तीसगढ़ राज्य में एरियल याम की पहली किस्म है। यह किस्म आई़‐जी‐के‐वी‐ रायपुर केंद्र जगदलपुर द्वारा वर्ष 2020 में विकसित किया गया। छत्तीसगढ़ डांग कांदा-1 अधिक उपज देने वाली किस्म है, जिसकी औसत उपज 12.71 टन प्रति हेक्टेयर है और संभावित उपज 15.03 टन प्रति हेक्टेयर है। यह 4-5 महीनों के भीतर परिपक्व, अधिक प्रोटीन (5.69 प्रतिशत) और शुष्क पदार्थ (40.94 प्रतिशत), लीफ स्पॉट रोग से मुक्त, सामान्य भंडारण के तहत बहुत अच्छा भंडारण जीवन तथा परिपक्व एरियल कंद के त्वचा का रंग- गहरा भूरा और मांस का रंग- हल्का पीला और उपयुक्त खरीफ में वर्षा सिंचित स्थिति में खेती के लिए उपयुक्त होती है। इसे पकाने में उच्च गुणवत्ता और कंद के मांस के रंग की बहुत अच्छी बनावट होती है।
खाद एवं उर्वरक
डांग कान्दा के उत्पादन हेतु अच्छी सड़ी हुई गोबर खाद एवं कम्पोस्ट 150-200 कुन्टल प्रति हे. की आवश्यकता होती है। रासायनिक उर्वरक में ईफको (12ः32ः16) या ग्रोमोर (19ः19ः19) 5-7 ग्राम प्रति पौधा की दर से गडढे में रोपाई के पूर्व मिलाना चाहिए।
बीज दर
रोपाई हेतु 50-60 ग्राम वजन वाले बलबिल्स का उपयोग किया जाता है। रोपाई हेतु 8-10 कुन्टल प्रति हेक्टेयर बलबिल्स की आवष्यकता होती है।
रोपाई का समय
मई-जून या वर्षा होने से पूर्व कंद बीजों की रोपाई तैयार गडढ़ों में देना चाहिए। एक बार रोपित पौधे पांच वर्ष तक उपज देते रहते है।
रोपड़ दूरीः 75x75 सेमी.
रोपाई की विधि
डांग कान्दा की रोपाई हेतु 75ग75 सेमी की दूरी पर 30x30x30 सेमी आकार के गडढे तैयार किये जाते है। गडढा को सुझाई गई्र खाद एवं उर्वरकों की मात्रा डालकर मिट्टी भर कर अंकुरित कंदों की रोपाई 7-10 सेमी गहराई में करना चाहिए।
स्टेकिंग या लताओं को सहारा देना
डांग कान्दा की अच्छी बढ़वार एवं उपज हेतु (12-15 फीट लम्बे) डण्डों से सहारा दिया जाता है। क्योंकि लतायें जितने लम्बे होगें उनमें उतने ही ज्यादा बलबिल्स या कन्द फल लगेगें। स्टेकिंग, बीजों के रोपाई के 10-15 दिनों के भीतर कर देना चाहिए।
फसल अवधि
डांग कान्दा के कन्द फल रोपाई के 2-3 महीने बाद लगना प्रारम्भ हो जाते हैं तथा रोपाई के 5 महीने बाद तोड़ाई के लायक हो जाते हैं। डांग कान्दा की एक बार में रोपित पौधे 5 वर्ष तक कन्द फल (बलबिल्स) देते रहते हैं। अतः हर वर्ष नये बलबिल्स रोपाई की आवष्यकता नही होती है। प्रत्येक वर्ष सिर्फ निराई गुड़ाई कर, खाद एवं उर्वरक देकर स्टेंकिंग या लताओं को सहारा देने की आवष्यकता होती है।
फसल सुरक्षा
डांग कान्दा में रोग एवं कीटों का प्रकोप कम पाया जाता है। फिर भी बलुई मृदा में दीमक के प्रकोप से बचाव हेतु कार्बोफ्यूरान दवा 2-3 ग्राम प्रति पौधे की दर से रोपाई के समय गडडों में डालना चाहिए। इसके अलावा प्रति वर्ष निराई गुड़ाई के पश्चात जून-जुलाई में देना चाहिए। कन्द फलों को रोपाई से पूर्व फफूॅदनाशक दवा जैसे बाविस्टीन के घोल से ( 0.01%) से उपचारित कर लेना चाहिए।
बलबिल्स या कन्द फलों की तोड़ाई
पौधे की पत्तियॉं एवं लताए रोपाई के 5 महीने पश्चात पीले पड़कर सूख जाये तब कन्द फलों की तोड़ाई कर लेना चािहए।
औसत बाजार मूल्य
किसानों केा बलबिल्स का 30-40 रू. प्रति किग्रा. औसत बाजार मूल्य प्राप्त होता है।
उपज एवं आर्थिक लाभ
औसत उपज 2-3 कि.ग्रा. प्रति पौधा या 150-170 कुन्टल प्रति हे. प्रति वर्ष प्राप्त होता है। आर्थिक विश्लेषण से ज्ञात होता है कि डांगकांदा की खेती के लिए लगभग 50 हजार रूपये लागत की आवश्यकता होती है। औसत 17 टन/हे. उपज प्रथम वर्ष प्राप्त होता र्है। यदि 20 रू. प्रति किलोग्राम की दर से थोक में कंद फलों का विक्रय किया जाय तो कुल 2 लाख 90 हजार रूपये प्रति हेक्टेयर की शुद्व आय इस फसल से प्राप्त हो सकती है।
डांगकांदा की खेती के लिए दूसरे वर्ष से लेकर तीसरे वर्ष तक लगभग 20 हजार रूपये प्रति वर्ष लागत की आवश्यकता होती है। औसत 17 टन/हे. उपज प्रथम वर्ष प्राप्त होता र्है। यदि 20 रू. प्रति किलोग्राम की दर से थोक में कंद फलों का विक्रय किया जाय तो कुल 3 लाख 20 हजार रूपये प्रति हेक्टेयर की शुद्व आय द्वितीय वर्ष, 3 लाख रू. तृतीय वर्ष 2 लाख 80 हजार रू. इस फसल से प्राप्त हो सकती है।
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