डॉ. निशी केशरी, सह प्राध्यापक
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय पूसा
गाजर रबी मौसम की प्रमुख फसल है जिसे भारत तथा अन्य देशों में प्रमुखता से उगाया जाता है। इसे सब्जी की तरह तथा सलाद, हलवा या मिठाई के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इसके अचार भी बनते हैं। इसमें विटामिन “ए“ की मात्रा बहुत होती है। इसलिए इसका उपयोग स्वास्थ्य के लिए बहुत ही फायदेमंद होता है। इसके अलग-अलग किस्म होते हैं जिनका रंग नारंगी, लाल तथा गहरा लाल होता है।
गाजर का बाजार मूल्य उसके आकार पर निर्भर करता है। चूंकि यह जमीन के नीचे पायी जाने वाली फसल है इसलिए इसमें सूत्रकृमियों का काफी आक्रमण होता है। इन सूत्रकृमियों में जड़गाँठ सूत्रकृमि, जड़ विक्षत सूत्रकृमि, वृक्काकार सूत्रकृमि इत्यादि का आक्रमण होता है जो गाजर के आकार को विकृत कर देते हैं। गाजर सीधा न होकर दो, तीन या उससे ज्यादा भाग में बंट जाती है। ऐसे गाजर की बिक्री नहीं हो पाती है और इसका रंग और स्वाद भी खराब हो जाता है। सूत्रकृमि के आक्रमण से इसमें 14.9 प्रतिशत बीज के अंकुरण के समय, 50.95 प्रतिशत उत्पाद में तथा 86.2 प्रतिशत बिक्री के समय होती है।
पौधा परजीवी सूत्रकृमि का आकार काफी छोटा होता है और बिना सूक्ष्मदर्शी के इसे नहीं देखा जा सकता। करीब-करीब सारे पौधे इससे सवंमित होते हैं और उनके उत्पाद की गुणवत्ता और परिमाण में कमी आती है। सभी सूत्रकृमियों में जड़गाँठ सूत्रकृमि सबसे खतरनाक होता है क्योंकि यह जड़ों के अंदर जाकर वहां के कोशिकाओं को बड़ाकर देता है और उन कोशिकाओं को खाकर अपना जीवन चक्र चलाता है। एक मादा अपने जीवनकाल में 200 से 400 अंडे देती है। सूत्रकृमि सामान्यतः मिट्टी में ही पाये जाते हैं और मिट्टी का तापमान, सरंध्रता, नमी, पीएच की मात्रा इत्यादि इनकी संख्या को नियंत्रित करती है। अगर मिट्टी में बालू की मात्रा ज्यादा हो तो सूत्रकृमि को ऑक्सीजन मिलता है और इनके जिन्दा रहने की क्षमता बढ़ जाती है। इनके आक्रमण से निम्नलिखित लक्षण आते हैं-
1. गाजर का फटना या विकृत रूप ले लेना।
2. एक पौधे में गाजर के एक से ज्यादा भाग बन जाना।
3. गाजर के साथ लगे पतली जड़ों में गाँठें बन जाना।
4. गाजर में बीटा कैरोटिन की मात्रा तथा गुणवत्ता में कमी।
5. ज्यादा संक्रमण के कारण गाजर का न बनना।
6. इसके संक्रमण से गुणवत्ता में कमी से 13 से 77 प्रतिशत की हानि होती है मात्रा में 24 से 55 प्रतिशत की हानि होती है।
चूंकि गाजर मिट्टी के नीचे पैदा होती है इसलिए सूत्रकृमि के नियंत्रण के लिए रसायन का इस्तेमाल करना हानिकारक होता है। इसलिए इसके प्रबंधन के लिए समन्वित प्रबंधन के उपायों को अपनाना फायदेमंद होता है। जैसे-
1. खेतों की गहरी जुताई- सूत्रकृमि प्रभावित खेतों में अप्रैल-जून के महीने में 3 से 4 बार गहरी जूताई कर मिट्टी को पलटना तथा उसको तेज धूप लगने देना चाहिए। प्रत्येक 10 से 15 दिनों पर इस प्रक्रिया को दोहराना चाहिए। बार-बार मिट्टी पलटने से सूत्रकृमि मिट्टी की सतह पर आ जाते हैं तथा तेज धूप से मर जाते हैं। इस विधि से सूत्रकृमि की जनसंख्या 50 से 70 प्रतिशत तक कम हो जाती है।
2. खरपतवार तथा पुरानी फसल की जड़ों को नष्ट करना- खरपतवारों में सूत्रकृमि मुख्य फसल के अभाव में अपना जीवन चक्र चलाने लगते हैं। अतः इन्हें जला देना चाहिए। इससे अगली फसल को सूत्रकृमि के संक्रमण से बचा सकते हैं।
3. बीज को उपचारित करना- मुख्य खेत में रोपाई से पहले बीजों को नीम बीज पाउडर के घोल में एक घंटे तक डूबोकर उपचारित करने के बाद रोपनी करनी चाहिए।
4. फसल चक्र का व्यवहार- कुछ ऐसी फसलें जिनमें सूत्रकृमि का प्रकोप नहीं होता है, उनको फसल चक्र में व्यवहार करें तो सूत्रकृमि की संख्या एक फसल के बाद अगली फसल में कम हो जायेगी तथा बिना किसी दवा के व्यवहार के हम सूत्रकृमि की हानि से बचजायेंगे। जैसे सब्जियों को धान्य फसलों जैसे गेहूं, चावल, मक्का आदि के साथ फसल चक्र में डालें।
5. प्रतिरोधी प्रजातियों का इस्तेमाल- अगर किसी फसल की प्रतिरोधी प्रजातियाँ मिल जाती हैं तो यह सबसे कारगर विधि होती है। हालांकि सभी फसलों में प्रतिरोधी प्रजातियाँ उपलब्ध नहीं हैं।
6. सोलेराइजेशन- पौधशाला में गहरी गुड़ाई कर के मिट्टी पलट दें। इसके बाद सफेद रंग के पॉलीथीन शीट से ढँक दें। पॉलीथीन शीट को चारों तरफ से ईंट से दबा दें। करीब 3 सप्ताह के बाद पॉलीथीन हटा दें। इस तरह 4 से 5 डिग्री तापमान बढ़ जाता है। यह तापमान सूत्रकृमि की संख्या में कमी ले आता है।
7. कार्बनिक पदार्थों का मृदा में व्यवहार- कोई भी खल्ली जैसे नीम, सरसों, अण्डी, करंज, महुआ का व्यवहार खेतों में बुआई के 25 से 30 दिनों के पहलेकरेंतथाउसकेबाद खेतमेंसिंचाईकरके 20 से 25 दिन तक छोड दें। इसकी मात्रा 2 से 8 टन प्रति हेक्टर की दर से किया जाता है।
8. रासायनिक दवाओं का व्यवहार- मुख्य खेत में 33 किग्रा कार्बोफ्यूरान दवा (फ्यूराडान) प्रति हेक्टर की दर से व्यवहार करें।
9. प्राकृतिक खादों का इस्तेमाल- गोबर की सड़ी खाद, वर्मीकम्पोस्ट, मूर्गी की खाद आदि का इस्तेमाल बुआई के 15 से 20 दिन पहले करने से मिट्टी में मिलाने से सूत्रकृमि की संख्या में कमी आती है।
0 Comments