डॉ. देवेन्द्र कुमार साहू, (पीएच.डी.), सब्जी विज्ञान,
पुलेश्वर खुराना (एम. एस. सी.), सब्जी विज्ञान,
इं.गां.कृ.वि.रायपुर (छ.ग.)
गिलकी (चिकनी तोरई) अत्यन्त ही महत्वपूर्ण एवं पौष्टिक गुणों से भरपूर सब्जी फसल है। इसका अंग्रेजी नाम स्पान्ज गार्ड एवं वानस्पतिक नाम लूफा सिलेन्ड्रिका है गिलकी के कोमल मुलायम फलों को सब्जी के लिए उपयोग में लाया जाता है । इसमें विटामिन ‘सी‘, जिंक, आयरन, राइबोफ्लेविन, थायमीन, फॉस्फोरस और फाइबर पाया जाता है। इसके अलावा इसमें अधिक वसा, कोलेस्ट्रॉल और कैलोरी पाई जाती है। ये वजन कम करने में मदद करते हैं। इसके अलावा यह कई रोगों से निजात दिलाती है। चिकनी तोरई की खेती देश के लगभग सभी राज्यों में सफलतापूर्वक की जाती है।
जलवायु एवं भूमि- गिलकी की खेती के लिए गर्म एवं आर्द्र जलवायु की आवश्यकता होती है। इसकी खेती खरीफ एवं जायद दोनों ऋतुओं में सफलतापूर्वक की जाती है। गिलकी की खेती के लिए 35-38 डिग्री सेल्सियस तापमान सर्वोत्तम माना जाता है। इसकी खेती उचित जल निकास वाली जीवांशयुक्त सभी प्रकार की मृदाओं में की जा सकती है। अच्छी पैदावार के लिए बलुई दोमट या दोमट मृदा, जिसका पी-एच मान 6-7 हो, उपयुक्त मानी जाती है।
उन्नत किस्में:-
काशी दिव्या- चिकनी तोरई की इस किस्म के पौधों का तना 4.5 मीटर लंबा और फल बेलनाकार होते हैं। रंग हल्का हरा और लंबाई 20 से 25 सेंटीमीटर होती है। बुबाई के 48-50 दिन के बाद फसल तैयार हो जाती है।
पूसा स्नेहा- इस किस्म की फल का रंग गहरा हरा और लंबाई 20-25 सेंटीमीटर होती है। बीज डालने के 50-55 दिन बाद फसल तोड़ने के लिए तैयार हो जाती है।
स्वर्ण प्रभा- इस किस्म की फसल को तैयार होने में थोड़ा ज्यादा समय लगता है, लेकिन पैदावार अच्छी होती है। बुवाई के 70-75 दिन बाद फसल तोड़ने लायक हो जाती है।
कल्याणपुर हरी चिकनी- यह चिकनी तोरई की अगेती किस्म है। इस किस्म के फल मध्यम आकार के पतले एवं गुदेदार होते है। फलों पर हल्की धारियां बनी होती है।
राजेन्द्र तोरई 1- इस चिकनी तोरई किस्म के फल हरे सफेद होते हैं और फलों की लम्बाई 25 से 30 सेंटीमीटर होती है। बुवाई के 62 से 65 दिन में फल तुड़ाई योग्य हो जाते हैं। यह खरीफ एवं जायद दोनों ऋतुओं में उगाने के लिए उपयुक्त किस्म है।
पंत चिकनी तोरई 1- इस चिकनी तोरई किस्म के फल हरे, बेलनाकार व लम्बे 25 सेंटीमीटर तक होते है। फल बुवाई के 25 दिन बाद तुड़ाई योग्य हो जाते है।
खाद एवं उर्वरक- गिलकी की अच्छी पैदावार के लिए 20-25 टन सड़ी गोबर की खाद के अतिरिक्त 30-40 कि.ग्रा. नाइट्रोजन, 20-25 कि.ग्रा. फॉस्फोरस तथा 20-25 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हैक्टर की आवश्यकता होती है। नाइट्रोजन की आधी मात्रा तथा फॉस्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बुआई के समय खेत में डालते हैं। नाइट्रोजन की शेष आधी मात्रा बुआई के 25-30 दिनों बाद ट्रॉप ड्रेसिंग के रूप में जड़ों के पास देना चाहिए ।
बुआई का समय- खरीफ फसल की बुआई जून-जुलाई में की जाती है।
बीज मात्रा- गिलकी की बुआई के लिए प्रति हैक्टर 3-5 कि.ग्रा. बीज की आवश्यकता होती है।
बुआई विधि- बुआई के लिए नाली विधि सबसे सर्वोत्तम मानी जाती है। इस विधि में खेत की तैयारी के बाद 2.5-3.0 मीटर की दूरी पर 45 सें.मी. चौड़ी तथा 30-40 सें.मी. गहरी नालियां बना लेते हैं। इन नालियों के दोनों किनारों पर 50 सें.मी. की दूरी पर बीज की बुआई करते हैं। एक जगह दो बीज लगाने चाहिए तथा बीज जमने के बाद एक पौधा सावधानीपूर्वक निकाल देना चाहिए।
सिंचाई- गिलकी की वर्षाकालीन फसल के लिए सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। वर्षा न होने की स्थिति में यदि खेत में नमी की कमी हो, तो सिंचाई कर देनी चाहिए।
चिकनी तोरई की फसल के पौधों को सहारा देना- वर्षा कालीन फसल में पौधों को बढ़ने के साथ ही ट्रेलिस या पण्डाल बनाकर चढ़ा देना चाहिए इससे गुणवत्तायुक्त तथा अधिक उपज प्राप्त होती है।
पलवार का प्रयोग- चिकनी तोरई की बुवाई के बाद खेत में पलवार (मल्च) का प्रयोग करना लाभप्रद होता हैद्य इससे मिटटी का तापमान बढ़ने व नमी संरक्षित होने के कारण बीजों का जमाव अच्छा होता है और खेत में खरपतवार नहीं उग पाते जिसके फलस्वरूप पैदावार पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है।
खरपतवार नियंत्रण- खेत को खरपतवारमुक्त रखने के लिए निराई व गुड़ाई समय-समय पर करते रहना चाहिए।
प्रमुख रोग एवं नियंत्रण:-
मृदूरोमिल आसिता (डाउनी मिल्ड्यू)- यह रोग फंफूद के कारण होता है। अधिक आर्द्रता वाले क्षेत्रों में इसका प्रकोप अधिक होता हैद्य इस रोग के लक्षण पत्तियों के उपरी सतह पर कोणीय पीले धब्बों के रुप में परिलक्षित होते है जो आगे चलकर पत्तियों के निचली सतह पर फैल जाते है तथा पत्तियां सूखकर गिर जाती है।
नियंत्रण- रोगग्रसित पत्तियों को तोड़कर मृदा में दबा देना चाहिए। रोग के संक्रमण के समय मैन्कोजेब के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिए। अधिक संक्रमण के समय मेटालाक्सिल 8 प्रतिशत मैन्कोजेब 64 प्रतिशत के 2.5-3.0 ग्रा. प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव करना चाहिए।
चूर्णिल आसिता (पाउडरी मिल्ड्यू)- इस रोग का कारण फफूंद हैद्य गम्भीर रुप से संक्रमित पत्तियां भूरे रंग की होकर सिकुड़ जाती है। परिपक्वता से पहले ही पत्तियां झड़ जाती है तथा लताएं मर जाती है ।
नियंत्रण- बुवाई से पहले थीरम कैप्टान कार्बेन्डाजिम की 2.5 से 3.0 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर बुवाई करना चाहिए। संक्रमण के समय डेनोकैप 48 ई सी 0.03 प्रतिशत या सल्फर 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिए।
फ्यूजेरियम उकठा रोग- पौधों का मुरझाना. गोंदीय पदार्थ का निकलना, तने के संवहन व ऊतकों का भूरा पड़ जाना आदि इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं।
नियंत्रण- कार्बेन्डाजिम 0.1 प्रतिशत या कार्बेन्डाजिम मैंकोजेब 0.25 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए।
गिलकी का पीला मोजेक- यह एक विषाणुजनित रोग है। इसके कारण कभी-कभी फसल में 100 प्रतिशत तक नुकसान हो जाता है। इस रोग का लक्षण पौधों की नई पत्तियों पर पीले धब्बे के रूप में दिखाई देता है। गम्भीर संक्रमण के समय पौधों की पत्तियां छोटी चित्तीदार हो जाती हैं तथा फल अनियमित आकार के हो जाते हैं। इस रोग का विषाणु सफेद मक्खी द्वारा फैलता है।
नियंत्रण- इस सफेद मक्खी के नियंत्रण के लिए इमिडाक्लोप्रिड 0.5 मि.ली.प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव किया जा सकता है।
प्रमुख कीट एवं नियंत्रण:-
कद्दू का लाल कीट-इस कीट के प्रौढ व सुड़ियाँ दोनों ही चिकनी तोरई फसल को नुकसान पहुंचाते हैैं। इसके प्रौढ़ कीट छोटे पौधों की मुलायम पत्तियों को खा जाते हैं, जिससे पौधे पत्ती रहित हो जाते हैं। इसकी सूड़ियाँ जमीन के नीचे पौधों की जड़ों एवं तनों में छेदकर देते है, जिससे पौधे मर जाते हैै।
नियंत्रण- डाइक्लोरवास 76 ई.सी. के 1.0-1.5 मि.ली. प्रति लीटर पानी के घोल का बीजपत्रीय अवस्था में छिड़काव कर नियंत्रण किया जा सकता है।
सफेद मक्खी- ये कीट पौधों का रस चूसते हैं तथा पत्तियों पर इनके द्वारा विसर्जित मल द्वारा काले कज्जली मोल्ड्स विकसित हो जाते हैं। इससे पौधों में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया नहीं हो पाती है। इसके अतिरिक्त ये येलो मोजेक रोग के विषाणु को भी एक पौधे से दूसरे पौधे में फैलाते हैं।
नियंत्रण- बोज को इमिडाक्लोप्रिड 70 डब्ल्यू. पो. 2.5 मि.ली. प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित कर बुआई करें। संक्रमण के समय इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस एल 0.3 मिलीलीटर लीटर या थाईमेथोक्साम 0.4 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का 15 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करें।
लीफ माइनर- इसके लार्वा पत्तियों में सुरंग बनाकर पर्ण हरित (क्लोरोफिल) को खाते हैं, जिसके कारण प्रकाश संश्लेषण क्रिया प्रभावित होती है।
नियंत्रण- इसकी रोकथाम के लिए 4 प्रतिशत नीम की गिरी के अर्क का छिड़काव प्रभावी होता है।
फल मक्खी- ये कीट चिकनी तोरई को अधिक क्षति पहुंचाते हैं। वयस्क मक्खियां मुलायम फलों के छिलके में छेदकर अण्डा देती हैं, जो फल को अन्दर से खाकर सड़ा देते हैं। ग्रीष्मकालीन वर्षा के समय अधिक आर्द्रता होने पर इनका संक्रमण ज्यादा होता हैं।
नियंत्रण- गहरी ग्रीष्मकालीन जुताई कर प्यूपा को नष्ट करें। खेत में 10-12 मीटर की दूरी पर मक्का की फसल उगायें। खेत से संक्रमित फलों को इकट्ठा कर जमीन में गाड़कर नष्ट कर दें। इसकी रोकथाम के लिए 4 प्रतिशत नीम की गिरी के अर्क का छिड़काव करें।
ब्लिस्टर बिटल (फफोलक भृग)- इस कीट के वयस्क चिकनी तोरई की फसल में फूलों को या फूलों की कलियों को खाकर क्षति पहुंचाते हैंद्य सामान्यतया अगस्त से नवम्बर तक इनका संक्रमण अधिक होता है।
रोकथाम- नीम के बीज की गिरी के निचोड़ (एन एस के ई) 4 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें और घोल में 0.5 मिलीलीटर प्रति लीटर की दर से स्टीकर मिला दें।
तुड़ाई, भण्डारण एवं उपज- फलों की तुड़ाई हमेशा मुलायम अवस्था में करनी चाहिए। देर से तुड़ाई करने पर उसमें कड़े रेशे बन जाते हैं। फलों की तुड़ाई 6-8 दिनों के अंतराल पर करते रहना चाहिए। पूरे फसलकाल में लगभग 7-8 तुड़ाइयां की जा सकती हैं। फलों की तुड़ाई के बाद इन्हें ताजा रखने के लिए ठण्डे छायादार स्थानों का चयन करना चाहिए। फलों को ताजा बनाये रखने के लिए बीच-बीच में उन पर पानी का छिड़काव भी करते रहना चाहिए। चिकनी तोरई की उपज किस्म और फसल की देखभाल पर निर्भर करती है। परन्तु उन्नत तकनीक से खेती करने पर 250 से 400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज प्राप्त होती है।
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