तोशिमा कुशराम
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)

गेंदा एक अत्यन्त लोकप्रिय व्यावसायिक फूल है्,जिसे देश के विभिन्न भागों में उगाया जाता है, यह एस्टरेसी ’कम्पोजिटी’ परिवार का पौधा है, इसका जन्म स्थान ’मैक्सिको ‘है, मौसमी पौधों में गेंदे का विशेष एंव महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि इसके फूल सालभर मिलते रहते है, उद्यान में इसे शोभा अभिवृध्दि हेतु उगाया जाता है, इसके बीजों को उत्पादन करके विदेशों को निर्यात किया जाता है। जिससे विदेशी मुद्रा अर्जित की जाती है।भारतवर्ष में गेंदा हर घर में सभी तरहकार्यों में उपयोग होने के कारण इसके फूलों की मांग सदैव बाजार में बनी रहती है।

गेंदा की तीन प्रजातियाँ प्रमुख हैं, जिन्हें उद्यानों एवं व्यावसायिक रुप से खेतों में उगाई जाती हैं यथा सिगनेट गेंदा, फ्रैन्च गेंदा (जाफ्ररी) और अफ्रीकन गेंदा (बडे़ फूल वाला)।सिगनेट गेंदा मैदानी क्षेत्रों में बहुत कम उगाया जाता है, जबकि पहाडों में बडें पैमाने पर उगाया जाता है, इसके पौधे छोटे होते है, जो लगभग 20-30 सेमी ऊँचे बढ़ते है और फूल भी मात्र 3-4 सेमी. व्यास वाले होते हैं। फै्रन्च गेंदा प्रजाति छोटे फूल के होते हैं, पौधे 10-32 सेमी ऊँचे होते हैं। इसके फूल 2.5-3.0 सेमी व्यास वाले होते हैं, पौधे छोटे और जमीन पर फैलने वाले होते हैं। अफ्रीकन गेंदे के पौधे 40-100 सेमी. तक ऊँचे बढ़ते हैं, फुल 5-15 सेमी. व्यास वाले होते हैं, कारनेशन जैसे फूलों वाली किस्मों के फूल बड़े होते हैं, जबकि गुलदाउदी जैसे फूलों वाली किस्मों के फूल छोटे हैं, जो क्यारियों में उगाने के लिये उपयुक्त होते हैं। गेंदा की खेती मुख्यतया दक्षिणी अफ्रीका, ब्राजील और आस्टेलिया में की जाती है, री भारत के मैदानी और पहाड़ी क्षेत्रों में इसकी खेती होने लगी है।

इसकी व्यावसायिक खेती उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश व जम्मू कश्मीर में की जाती है। गेंदे का उपयोग विभिन्न प्रकार से किया जाता है जिसका उल्लेख नीचे किया गया है-
  • गेंदे की व्यावसायिक खेती करके आय प्राप्त करने हेतु ।
  • गेंदे का बीजोत्पादन करके आय प्राप्त करने हेतु ।
  • गेंदे के पुष्प चुनकर हार बनने के लिए इसका अधिक उपयोग किया जाता है।
  • आयुर्वेदिक जगत में इसका उपयोग औषधि के रुप में किया जाता है।
  • टमाटरों को फल छेदक कीट के प्रकोप से बचाने हेतु टमाटर की 10 पंक्तियों के बाद एक पंक्ति गेंदे की लगाने से टमाटर की फसल का छेदक कीट से बचाव हो जाता है।
  • गेंदे के फूलों से इत्र भी निकाला जाता है जो काफी मँहगा बिकता है।
  • गेंदा ल्यूटिन का एक प्रमुख स्रोत हैै, जिसे गेंदे के फूलो से प्राप्त किया जाता है।
  • गेंदे से तेल भी निकाला जाता है।
  • गेंदे की भरपूर उपज लेने के लिये इसकी खेती नूतन तकनीक द्वारा करनी चाहिये जिसका उल्लेख नीचे किया गया है।

भूमि का चुनाव व उसकी तैयारी
गेंदे की खेती विभिन्न प्रकार की भूमि में किया जा सकता है। पर उचित वानस्पतिक वृद्धि एवं फूलों के समुचित विकास के लिए उचित धूप वाला स्थान सर्वोत्तम माना जाता है। गेंदे की खेती के लिए उचित जल निकास वाली बलुई दोमट मिट्टी जिसका पी एच मान 5.5 से 6.5 के बीच हो, अच्छी होती है। क्षारीय और अम्लीय भूमि इसकी व्यावसायिक खेती के लिए बाधक मानी जाती है इसलिए भूलकर भी ऐसी भूमि में गेंदे की खेती नहीं करना चाहिए। पौधों की रोपाई के पहले खेत की अच्छी तरह जुताई करके मिट्टी  को भुरभुरी बना लेना चाहिए।

जलवायु
गेंदे को साल भर, तीनों ही ऋतुओं में आसानी से उगाया जा सकता है। इसके अच्छी पौदावार शरद ऋतु उपयुक्त पाई जाती है। इसका पौधा पाले से प्रभावित होता है।खुला स्थान जहाँ पर सूर्य की रोशनी सुबह से शाम तक रहती हो, ऐसे स्थानों पर गेंदा की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है।गेंदा के अच्छे उत्पादन के लिये शीतोष्ण और समशीतोष्ण जलवायु अच्छी मानी जाती है. अधिक गर्मी एवं अधिक सर्दी पौधों के लिए अच्छी नहीं मानी जाती है। इसके उत्पादन के लिये तापमान 15-30 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए।

गेंदा का प्रवर्धन
गेंदा का प्रवर्धन बीज तथा कटिंग (वानस्पतिक) विधि द्वारा किया जाता है । वानस्पतिक विधि द्वारा प्रवर्धन करने से पौधे पैतृक जैसे ही उत्पादित होते हैं। व्यवसायिक स्तर पर गेंदा का प्रवर्धन बीज द्वारा किया जाता हैं।

कटिंग (वानस्पतिक) विधि
गेंदा का प्रवर्धन कटिंग (वानस्पतिक) विधि द्वारा करने के लिए 6 से 8 सेंटीमीटर लम्बी कटिंग पौधे के उपरी भाग से लेते हैं। पौधे से कटिंग को अलग करने के उपरान्त कलम के कुछ पत्तियों (1 से 2) को रखकर शेष सभी पत्तियों को काट देते हैं तथा कटिंग के निचले भाग को तिरछा काटते हैं। इसके बाद कटिंग को बालू मेंया अन्य माध्यममें 2 से 3 सेंटीमीटर गहराई पर लगा देते हैं। कलम को बालू में या अन्य माध्यम में लगा देने के 20 से 25 दिन बाद कलम में जड़ें बन जाती हैं। इस प्रकार वानस्पतिक प्रवर्धन विधि से पौधा बन कर रोपण हेतु तैयार हो जाता हैैं।

बीज की मात्रा
गेंदे की बीज की मात्रा किस्मों के आधार पर भिन्न होती है. जैसे कि संकर किस्मों का बीज 700 से 800 ग्राम प्रति हेक्टेयर तथा सामान्य किस्मों का बीज 1 से 1.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के लिए पर्याप्त होती है।गेंदे का बीज एक वर्ष से अधिक समय तक अंकुरण क्षमता बनाए रखने वाले होते हैं। इसके बावजूद बहुत पुराना बीज नहीं लगाना चाहिए क्योंकि पुराने बीज की अंकुरण क्षमता घट जाती है।

गेंदे की उन्नत किस्में
अधिक उपज लेने के लिए परम्परागत किस्मों की जगह केवल उन्नत किस्मों की ही खेती करनी चाहिए। गेंदे की मुख्यतः दो प्रजातियां अफ्रीकन गेंदा और फ्रेन्च गेंदा होती है।

अफ्रीकन गेंदा
इस किस्म के पौधे की ऊंचाई 60 से 90 सेमी तक पायी जाती है। इसके पौधे अनेक शाखाओं से युक्त होते हैं। इसके पुष्प का आकार बड़े, गुत्थे हुए एवं विभिन्न रंगो जैसे-पीले, नांरगी होते हैं। इसके फूल गोलाकार बहुगुणी पंखुड़ियों वाले होते है। बड़े आकार के फूलों का व्यास 7-8 सेमी तक होता है।

प्रमुख प्रजातियां
अर्का बंगारा, अर्का बंगारा 2, अर्का अग्नि, पिस्ता, येलो, सुप्रीम, जीनिया गोल्ड, क्राउन आफ गोल्ड, मैलिंग स्माइल, नांरगी जाइंट डबल पीला, क्राउन आफ गोल्ड येलो स्पेन, फर्स्ट लेडी और सपन गोल्ड।

इसके अतिरिक्त भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा भी गेंदे की दो किस्में पूसा नांरगी गेंदा और पूसा बसंती गेंदा निकाली गई है। जो की वर्तमन समय में बहुत ही प्रचलित किस्में है।

फ्रेन्च गेंदा
इस प्रजाति की ऊंचाई लगभग 20-30 सेमी तक की बौनी तथा छोटे फूलों वाले होते हैं। इसमें अधिक शाखाएं नहीं होती हैं किन्तु इनमें इतने अधिक पुष्प आते है कि पूरा का पूरा पौधा पुष्पों से ढंक जाता है। यह प्रजाति अफ्रीकन गेंदे की अपेक्षा व्यावसायिक दृष्टि से अधिक लाभदायक है क्योंकि यह प्रजाति जल्दी व अधिक फूल देने वाली किस्म है।

प्रमुख प्रजातियां
पूसा दीप, पूसा अर्पिता,अर्का हनी,अर्का परी,बोलेरो, बटरस्काच, बटरवॉल, ब्राउन स्काउट, गोल्डन और गोल्डन जेम, स्टार ऑफ इंडिया, येलों क्राउन, रेड हेट आदि।



नर्सरी एवं पौध तैयार करना
बीज बोने से पहले नर्सरी के लिए चयनित जमीन को 2 प्रतिशत फार्मेलीन से उपचारित कर लेना चाहिए। तत्पश्चात जमीन के दो दिन तक पॉलीथीन या प्लास्टिक के बोरे के ढंककर रखना चाहिए। इसके बाद जमीन को सुखाकर 3 मीटर लम्बा 1 मीटर चौड़ा क्यारी बना लेते हैं। दो क्यारियों के मध्य 1 फीट का अंतर रखते हैं जिससे पानी देने एवं निदाई गुड़ाई आसानी से किया जा सके। नर्सरी की क्यारियों में 10 किग्रा सड़ी गोबर की खाद अच्छी तरह मिला लेना चाहिए। बीज को 3-4 सेमी की गहराई मे बोना चाहिए तथा कतार से कतार की दूरी 5 सेमी रखनी चाहिए। बुआई के बाद हल्की भुरभुरी गोबर की खाद से ढंककर सिंचाई करके सुखे घास से ढंक देते हैं, ताकि बीजों का अंकुरण अधिक एवं एकसमान हो।

पौध रोपण समय एवं दूरी
नर्सरी में बीज बोने के 25-30 दिनों के बाद जब तीन-चार पत्तियां पौधों पर हो जाये तो पौधा रोपाई के लिए तैयार हो जाता है। गेंदा के पौधों की रोपाई समतल क्यारियों में की जाती है। रोपाई की दूरी गेंदे की किस्म पर निर्भर करता है। अफ्रीकन गंेंदे में पौधों की दूरी 40 सेमी एवं पंक्ति से पंक्ति की दूरी 40 सेमी रखी जाती है जबकि फ्रेन्चगेंदे में यह दूरी 30× 30 सेमी रखते हैं। नर्सरी से पौधे उखाड़ते समय हल्की सिंचाई कर देने से उखाड़ते समय पौधों की जड़ों को क्षति नहीं पहुंचता है।रोपण का कार्य सांयकाल के समय करना चाहिए। रोपाई के बाद हल्की सिंचाई करना आवश्यक है।

गेंदा में पोषक तत्व
अधिक उत्पादन एवं वृद्धि के लिए नत्रजन, फास्फोरस एंव पोटाश की उचितमात्रा की आवश्यकता होती है। जिस भूमि में गेंदे की खेती करनी हो सर्वप्रथम उसमें से फसलों के अवशेष, कंकड़ पत्थर और खरपतवार आदि को चुनकर निकाल देना चाहिए। भूमि की अंतिम जुताई के समय गोबर की सड़ी खाद या कंपोस्ट खाद 20 टन प्रति हेक्टेयर की दर से डालनी चाहिए। खेत में प्रति हेक्टेयर 150-200 किग्रा नत्रजन, 100-150 किग्रा फास्फोरस एवं 80-100 किग्रा पोटाश रोपाई के पूर्व भूमि में डालकर मिला देना चाहिए। नत्रजनकीआधी मात्रा एवं फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा को रोपाई के समय दें। यूरिया की शेष आधी मात्रा को रोपाई के 30 दिन एवं 45 दिन बाद पौधो के आसपास कतारों के बीच में दें। तत्पश्चात खेत में सिंचाई की नलियां तथा क्यारियां बना लेनी चाहिए।

सिंचाई तथा निदाई गुड़ाई
गेंदे की फसल में सिंचाई का विशेष महत्व है। सिंचाई की मात्रा फसल की किस्म और मौसम की दशा पर निर्भर करती है। आमतौर पर वर्षा ऋतु में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है पर फिर भी काफी समय तक वर्षा न हो तो सिंचाई कर देनी चाहिए। जाड़े में 8-10 दिन तथा गर्मी 5-6 दिन के अंतर पर सिंचाई करने से फूल का उत्पादन अच्छा होता है। आवश्यकता से अधिक पानी देने से फसल को क्षति हो सकती है।खेत में भूसा, पुवाल एवं कागज की तह बिछा देने पर पानी की आवश्यकता कम पड़ती है। गेंदे की फसल के साथ अनेक खरपतवार उग आते हैं जो मुख्य फसले के साथ प्रकाश, पोषक तत्व तथा स्थान आदि के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं। अच्छे पुष्पोत्पादन हेतु 2 से 3 निदाई गुड़ाई करनी चाहिए।

पौधों की शीर्ष कलियों की कटाई
अच्छे पुष्पोत्पादन हेतु अफ्रीकन गेंदे की किस्मों को लगाने के 30-40 दिनों के बाद जब प्रथम कली दिखाई पड़े, तो शाखाओं की शीर्ष कलिकाओं  के अग्र भाग को ऊपर से दो तीन सेमी काटकर हटा देने से शाखाएं अधिक संख्या में निकलती है और पौधे अधिक घने एवं झाडीदार हो जाते है जिससे फूलों की संख्या तथा आकार बढ़ जाता है और फूलों की कुल उपज बढ़ जाती है।


पौधों को सहारा देना आवश्यक
गेंदे के पौधों की बढ़वार अधिक तेजी से होती है। पौधों पर अधिक संख्या में फूल खिलने से वनज बढ़ जाता है जिससे उनके गिरने की आशंका बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति में गेेंदे के पौधों के साथ बास की पट्टियां गाड़कर बांध देना चाहिए जिससें पौधे टूटे नहीं।

फलों की तोड़ाई, उपज
गेंदे की पौधे रोपने के 60-70 दिन बाद फूल देना शुरू कर देते हैं। फूलों को तब तोड़ना चाहिए जब वे पूर्णरूपेण विकसित हो जायें। गेंदे के फूलों को सुबह शामको तोड़ना चाहिए। फूलों की तोड़ाई के समय यदि खेत में नमी हो तो प्राप्त फूल अधिक समय तक ताजा बने रहते हैं। गेंदे की फूलों की उपज उगाई गई किस्म, भूमि की उर्वरा शक्ति और फसल की देखभाल पर निर्भर करती है। सामान्यता प्रति हेक्टेयर 150-180 क्विंटल अफ्रीकन गेंदा फूल एंव 120-150 क्विंटल फ्रेन्च गेंदा फूल की उपज होती हैं ।

भण्डारण
फूलो की कटाई करने के बाद छायादार स्थान पर फैलाकर रखना चाहिए. पूरे खिले हुए फूलो की ही कटाई करानी चाहिए. कटाई किएहुए फूलों का भण्डारण शीत गृह में 4 डिग्री सेल्सियस तापक्रम पर किया जाता है।

रोग एवं रोकथाम-

डैमपिंग आफ- यह बीमारी राइजोकटोनिया सोलेनाई कवक का प्रकोप होने पर नर्सरी में होती हैं। इस बीमारी का प्रकोप होने पर नर्सरी में ही पौधों की मृत्यु हो जाती हैं। अधिकतर यह बीमारी नर्सरी में पौधों को बहुत अधिक पानी देने के कारण होती है।

रोकथाम- इसकी रोकथाम के लिए क्यारीयों में बीज की बुवाई करने से पहले क्यारी में किसी भी कापर कवकनाशी (कैप्टान) का घोल (2.2 प्रतिशत सान्द्रता) का ड्रेच करना चाहिए या मिट्टी को फार्मल्डीहाइड नामक रसायन के घोल (2 प्रतिशत सान्दता) से उपचरित कर देना चाहिए।

फ्लावर बड़-रॉट- यह बीमारी अधिक आर्द्रता वाले क्षेत्रों में अधिक देखी जातीहै । इस बीमारी से गेंदे की कलियों पर ब्राउन धब्बे पड़ जाते हैं । इस प्रकार की कलियाँ पूर्ण रूप से खिल नहीं पाती हैं।

रोकथाम- इसकी रोकथाम के लिए डाइथेन एम- 45 का 2.2 प्रतिशत सान्द्रता के घोल का छिड़काव करना चाहिए।

कालर रॉट, फूट रॉट एवं रूट रॉट- यह बीमारियां राइजोकटोनिया सोलेनाई, फाइटोप्थोरा स्पेशीज, पीथियम स्पेशीज़, इत्यादि कवकों के कारण होती है। कालर राट गेंदेकी फसल में किसी अवस्था में देखा जा सकता है। फूट रॉट एवं रूट रॉट अधिक आर्द्रता वाले क्षेत्र में तथा क्यारी में अधिक पानी होने के कारण भी होता है।

रोकथाम- इसकी रोकथाम के लिए नर्सरी की मिट्टी को बीज की बुवाई से पहले फार्मल्डीहाइड की घोल से उपचरित करें, रोग रहित बीज का प्रयोग करें, रोगग्रसित पौधों को उखाड़ दें, बहुत घना नर्सरी या पौध रोपण न करें तथा बुवाई से पहले कैप्टान से बीज को उपचारित करें।

लीफ स्पाट- यह बीमारी अल्टरनेरिया टॅजेटिका कवक के करण होता है। इस बीमारी से प्रभावित पौधों के पत्तियों के ऊपर भूरा गोल धब्बा दिखने लगता है, जो धीरे-धीरे पौधों की पत्तियों को खराब कर देता है।

रोकथाम- इस बीमारी की रोकथाम के लिए बाविस्टीन 1 से 1.5 ग्राम पाउडर प्रति लीटर पानी में घोलकर पौधों पर छिड़काव करना चाहिए।

पाउडरी मिल्ड्यू- गेंदा में पाउडरी मिल्ड्यू ओडियम स्पेशीज और लेविल्लुला टैरिका कवकों के प्रकोप होने के कारण होता है। इस बीमारी में पौधों के पत्तियों के उपर सफेद पाउडर दिखाई देने लगता हैं। कुछ समय बाद पूरे पौधे पर सफेद पाउडर दिखने लगता है।

रोकथाम- इसकी रोकथाम के लिए कैराथेन 1.0 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।

कीट व्याधियाँ एवं नियंत्रण
रेड स्पाइडर माइट- माइट गेंदे की पत्तियों का रस चूस लेते हैं। जिससे पत्तियाँ हरे रंग से भूरे रंग में बदलने लगती हैं और पौधों की बढ़वार बिल्कुल रुक जाती हैं। इसका अत्याधिक प्रकोप होने पर पुष्पोत्पादन भी नहीं हो पाता, जो कलियां बनती भी हैं, वह खिल भी नहीं पाती हैं।

रोकथाम- इसकी रोकथाम के लिए हिल्फोल 1.0 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोल कर छिड़काव करना चाहिए।

एफिड्स- एफिड्स रस चूसने वाला कीट है। इनका प्रकोप गेंदे की पत्तियों, टहनियों एवं पुष्प कलियों पर होता है। यह पौधे की वृद्धि को कम कर देता है।

रोकथाम- इसकी रोकथाम के लिए मैलाथियान का छिड़काव 2.0 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोलकर करना चाहिए।

कैटरपिलर- कैटरपिलर हरा एवं भूरा काले रंग का कीट है। यह गेंदे की पत्तियों, टहनियों एवं कलियों को नुकसान पहुंचाते हैं।

रोकथाम- इसकी रोकथाम के लिए 1.5 मिलीलीटर मैलाथियान एक लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।