डॉ. मुकेश कुमार साहू
उधानिकी महाविधालय अर्जुन्दा
डॉ. टी. तिर्की एवं डॉ. समीर ताम्रकार
फ्लोरीकल्चर एंड लैंडस्केप आर्किटेक्चर विभाग आई.जी.के.वी रायपुर (छ.ग.)

रजनीगंधा(पोलियनथिस ट्यूबरोसा एल), एमेरलिडेसी,परिवार से संबंधित है, इसके विविध उपयोगों के कारण यह प्रमुख व्यावसायिक फूल वाली फसलोंमें से एक है। इस फसल की प्रमुख विशेषता इसकी बहुवर्षीय जीवन,सुगन्धित सुगंध और उत्कृष्ट रख-रखाव की गुणवत्ता है। इसमें कटे हुए फूलों के व्यापार और आवश्यक तेल उद्योग के लिए एक बड़ी आर्थिक क्षमता है। उनकी अत्यधिक मांग के कारण उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय देशों के अधिकांश भाग में इसकी खेती की जा रही है।

उत्पत्ति और इतिहास
रजनीगंधा की उत्पत्ति मेक्सिको को माना जाता हैं। जहां से यह 16 वीं शताब्दी के दौरान दुनिया के विभिन्न हिस्सों में फैला। ऐसा माना जाता है कि 16वीं शताब्दी मेंरजनीगंधा के कंद को यूरोप के रास्ते भारत लाया गया था।

उपयोग
इनका उपयोग कलात्मक माला, फूलों के आभूषण, गुलदस्ते और बटनहोल बनाने आदि के लिए किया जाता है। टेबल की सजावट के लिए कटे हुए फूलों (कट फ्लावर्स) के रूप में लंबे फूलों की स्पाइक्स उत्कृष्ट होती हैं। रजनीगंधा के फूल आपने सुगंध के करण बाजार में अपना एक अलग ही स्थान रखते हैं । रजनीगंधा के फूल एवं कंद (बल्ब) तेल का स्रोत हैं जिसका उपयोग उच्च मूल्य के इत्र और कॉस्मेटिक उत्पादों में किया जाता है तथा रजनीगंधातेल में मिथाइल बेंजोएट, मिथाइल एन्थ्रानिलेट, बेंजाइल अल्कोहल, बेंजाइल बेंजोएट, ब्यूट्रिक एसिड, फिनाइल एसिटिक एसिड, मिथाइल सैलिसिलेट, यूजेनॉल, गेरानियोल,फ़ार्नेसोल, मिथाइल वैनिलिन और पिपरोमेल होते हैं। पत्तियों, फूलों, बल्बों और जड़ों में स्टेरोल्स, ट्राइटरपेन्स, कार्बोहाइड्रेट्स, सैपोनिन्स और अल्कलॉइड्स के अंश भी पाए जाते हैं ।

क्षेत्र और वितरण
रजनीगंधा की खेती फ्रांस, दक्षिण अफ्रीका, उत्तरी कैरोलिना, संयुक्त राज्य अमेरिका और भारत सहित कई उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर की जाती है। भारत में, रजनीगंधा के पुष्प एवं कंद की व्यावसायिक खेती मुख्य रूप से कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगालआदि राज्यो में सफलता पूर्वक किया जा रहा हैं। छत्तीसगढ़ जी भूमि,जलवायु, मांग एवं बाजार के आधार पर कहा जा सकता है कि हमारे राज्य मेंरजनीगंधाकी व्यावसायिक खेती की प्रबल संभावनाये है ।

मिट्टी और जलवायु
रजनीगंधा की खेती विभिन्न प्रकार की मिट्टियों मेंआसानी सेकिया जा सकता है । अनुपयुक्त लवणीय और क्षारीय मृदाओं में भी कुछ उन्नत तकनीकों को आपना करइसकी खेतीकी जा सकती है।उचितवायु संचार और जल निकास वाली रेतीली दोपट ’ या ’ दोपट मृदाएँ, जिनका पी - एच० मान 6.5-7.5 हो,ऐसी मृदा रजनीगंधा की खेती के लिये सबसे उपुक्त होती है । रजनीगंधा को अच्छी जल निकासी वाली जगह पर उगाया जाना चाहिए, क्योंकि यह थोड़े समय के लिए भी जलभराव को सहन नहीं कर सकता है।क्योंकि ऐसी स्थिति में जड़ प्रणाली खराब हो जाती है जिसके फलस्वरूप पौधों की बढ़वार और पुष्पन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । यदि किसी कारणवश खेत में अधिक पानी भर जाए तो उसे निकालने की तुरन्त व्यवस्था करनी चाहिए।

जलवायु
इसके पौधे आत्यधिक अधिक या कम तापमान को सहन करने में असमर्थ होते हैं। ऐसे स्थिति में रजनीगंधा उगाने के लिए मृदुल जलवायु उपयुक्त रहती है । 20-25 डिग्री अंशतापमान रजनीगंधा की खेती के लिये अच्छी मानी जाती हैं। बहुत अधिक छाया एवं धूप की दोनों ही स्तिथि रजनीगंधा पुष्पोत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।

खेत की तैयारी
रजनीगंधा की खेती में भूमि की तैयारी का विशेष महत्व है । खेत की भली - भाँति 2-3 जुताई करके पाटा चलाकर मिट्टी को भुरभुरा बना लेना चाहिए । यदि भूमि भली - भाँति तैयार नहीं की गयी तो उसमें ढेले रह जायेंगे । पूर्णरूप से गली- सड़ी 25 -30 टन गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से डालनी चाहिए । कदों को बोने से लगभग 20-25 दिन पहले गोबर की खाद डालनी चाहिए । ध्यान रहे कि भूमि खरपतवारों और विगत फसल के अविशिष्टों से मुक्त रहनी चाहिए ।

रोपण
रोपण का घनत्व फूलों की उपज और गुणवत्ता को स्पष्ट रूप से प्रभावित करता है। रोपण की दूरी मिट्टी और जलवायु परिस्थितियों के साथ बदलती रहती है। एक हेक्टेयर भूमि में रोपण के लिए लगभग 1,00,000 से 2,00,000 बल्बों की आवश्यकता होती है। 15×20 सेमी (महाराष्ट्र), 25×25 सेमी (पश्चिम बंगाल), 30×30 सेमी (लखनऊ), 30×22.5 सेमी (बैंगलोर) और 20×20 सेमी (दक्षिण भारत के अन्य भाग के लिए) की दूरी तय की गई है। अगर हम छत्तीसगढ़ के संदर्भ में बात करें तो इसके लिये 30×30 सेमी की दुरी इस फसल के लिए अनुशंसित है। रोपण करते समय, बल्बों को 4-6 सेमी गहराई पर लगाया जाता है। रोपण के तुरंत बाद भूखंडों की सिंचाई की जाती है।

बीज उपचार
बल्बों को पहले अच्छी तरह से साफ किया जाता है और 30 मिनट के लिए बाविस्टिन (0.2 प्रतिशत) से उपचारित किया जाता है। थायोरिया के 4 प्रतिशत घोल में बल्बों को डुबाने से सुसुप्ता आवस्था टूट जाती है। पौधों की वृद्धि में सुधार, स्पाइक और फूलों की उपज में वृद्धि के लिए 30 दिनों तक 10 डिग्री सेल्सियस पर बल्बों का रोपण के पूर्व-संग्रह भंडारण काफी लाभ दायक माना गया है। GA 3, ईथर या थियोउरिया के साथ बल्बों को रोपण के पूर्व उपचार करने से शीध्र ही फूलों की प्रति होती है साथ ही साथ लंबी स्पाइक्स के साथ अधिकतम संख्या में फूलों के उत्पादन में भी मदद मिलती है ।

मौसम
भारत के मैदानी इलाकों एवं छत्तीसगढ़ में मार्च-अप्रैल के महीने में और पहाड़ियों में अप्रैल-मई में बल्बोंकीरोपणजाती है।

प्रमुख किस्में
रजत रेखा, स्वर्ण रेखा, श्रृंगार, ’कलकत्ता सिंगल’, सुवासिनी, प्रज्वल, ’मैक्सिकन सिंगल’,’लोकल डबल’, वैभव आदि किस्मों की खेती करना लाभदायक होता हैं।

पोषक तत्व प्रबंधन
सामान्य तौर पर, बल्ब लगाने से 20-25 दिन पहले गोबर की खाद को मिला देना चहिए। रजनीगंधाकी व्यावसायिक खेती के लिये 200 किग्रानाइट्रोजन,150 किग्राफस्फोरुस और 150 किग्रापोटाशप्रति हे. की दर, डालना उचित है। उर्वरकों की पूरी अनुशंसित मात्रा में से आधी नाइट्रोजन एवं फस्फोरुसऔर पोटाश की पूरी खुराक रोपण के समय और शेष नाइट्रोजन की आधी मात्रा को दो भागो में विभक्त कर रोपण के 45 एवं 90 दिनों के बाद शीर्ष ड्रेसिंग के रूप में दी जानी चाहिए।

जल और सिंचाई प्रबंधन
अंकुरण के लिए पार्यप्त नमी प्रदान करने के लिएरोपण के तुरंत बादसिंचाई करना बहुत आवश्यक है और बल्बों के अंकुरित होने तक आगे की सिंचाई से बचना चाहिए। ग्रीष्मकाल में मिट्टी के सूख जाने की स्थिति में 5-7 दिनों के अंतराल पर या उससे भी पहले सिंचाई करनी चाहिए और सर्दियों में 10 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए। बरसात के दिनों में आवश्यकता होने पर ही सिचाई किया जाना चाहिए एवं खेत में अधिक पानी भर जाए तो उसे निकालने की तुरन्त व्यवस्था करनी चाहिए।

खरपतवार प्रबंधन
खेतों को खरपतवार मुक्त रखने के लिए और बल्बों को संपर्क में आने से बचने के लिए, महीने में एक बार भूखंडों की निदाई औरमिट्टी की गुड़ाई जाती है। हाथो के द्वारा निदाई करना बहुत ही प्रभावी होता है और इसे मासिक अंतराल पर किया जाना चाहिए। हाथो के द्वारा निदाई कार्य में खर्च भी काफी होता है। एट्राज़िन (@ 3 किग्रा/हेक्टेयर) या ग्रैमैक्सोन (3 किग्रा/हेक्टेयर)खरपतवारनाशी का प्रयोग खरपतवारो को नष्ट करने के लिए भी किया जा सकता है।खेत में काली पॉलिथीन, सूखी घास और कटा हुआ पुआल की पट्टियों से मल्चिंग करना खरपतवारों को नियंत्रित करने में प्रभावी होता है।गुड़ाई करने से मृदा के अंदर वायु का उचित संचार होता है साथ ही साथ तेज हवाओं और बारिश के बावजूद स्पाइक्स को सीधा रहने में सक्षम बनाता है।

पौधों को सहारा देना
रोपण के लगभग 2.5 महीने के बाद फूलों की स्पाइक्स को डंडे या किसी अन्य माध्यम से सहारा देना चाहिए ताकि तेज हवाओं या अन्य किसी प्रकार से होने वाली हानी से पौधों को बचाया जा सके।

कीट एवं बीमारियाँ:-

बड बोरर (हेलिकोवर्पा आर्मिगेरा): यह कीट मुख्य रूप से फूलों को नुकसान पहुंचाता है। लार्वा कलियों और फूलों को खाते एवं छेद करते है।

नियंत्रण: क्षतिग्रस्त कलियों को इकट्ठा कर नष्ट करने से नुकसान कम होता है। मिथाइल पराथियान 0.05 प्रतिशत का स्प्रे कीटो को नियंत्रित करने में सहायक है। नीम का तेल 1 प्रतिशत भी बड बोरर कीटो के नियंत्रण में कारगर है।

एफिड्स: ये छोटे कीड़े, मुलायम शरीर वाले, हरे, गहरे बैंगनी या काले रंग के होते हैं। ये आमतौर पर येगुच्छों में होते हैंऔर फूलों की कलियों और युवा पत्तियों पर आक्रमण करते हैं।

नियंत्रण: संक्रमित पौधों पर 0.1 प्रतिशत मैलाथियान का 15 दिनों के अंतराल पर छिड़काव करना प्रभावी होता है।

टिड्डे: ये युवा पत्तियों और फूलों की कलियों को खाते हैं। क्षतिग्रस्त पत्ते और फूलों से प्रभावित पौधेखासकर बरसात के मौसम में अपनी सुंदरता खो देते हैं।

नियंत्रण: क्विनालफॉस @0.05 प्रतिशत या मैलाथियान 0.1 प्रतिशत का छिड़काव नई रोपित फसल कीपत्ते की रक्षा करने में काफी कारगर है।

लाल मकड़ी: लाल मकड़ीया गर्म और शुष्क परिस्थितियों में अच्छी तरह पनपते हैं, आमतौर पर पत्तियों के नीचे की तरफ, ये जाले बनाते हैं। ये आमतौर पर लाल या भूरे रंग के होते हैं। माइट्स रस चूसते हैं, जिसके परिणामस्वरूप पर्णसमूह पर पीली धारियाँ और धारियाँ बन जाती हैं।

नियंत्रण: लाल मकड़ी को नियंत्रित करने के लिए केल्थाने 0.2 प्रतिशत क छिड़काव करना उचित रहता हैं।

थ्रिप्स: थ्रिप्स पत्तियों, फूलों के डंठल और फूलों को खाते हैं। ये रस चूसते हैं और पूरे पौधे को नुकसान पहुंचाते हैं।

नियंत्रण: पौधे पर 0.1 प्रतिशत मैलाथियान का छिड़काव करके थ्रिप्स को नियंत्रित किया जा सकता है

वीविल्स (माइलोसेरस एसपी): घुन निशाचर आदतके होते हैं तथा टहनियों और पत्तियों को क्षतिग्रस्त कर देते हैं। आमतौर पर ये पत्तियां के किनारे भाग को खिलातेहैं। लार्वा जड़ों औरबल्बको नुकसान पहुचती हैं।

नियंत्रण: रोपण से पहले मिट्टी में बीएचसी धूल (10 प्रतिशत) डालने से लार्वा नियंत्रित होता है।

बीमारियाँ:-

तना सडन: यह फफूंदी जनित रोग है । जिसके प्रभाव से भूमि स्तर से तना सड़ जाता है । रोगी पौधों के पत्तों पर हल्के रंग के धब्बे पड जाते है जो बाद में पूरी पत्तियों में फ़ैल जाते हैं प्रभावित पत्तिया गिर जाती हैं ।

नियंत्रण: इस रोग से बचने के लिये 20 प्रतिशत ब्रसिकोल को तीन सप्ताह के अंतराल पर 3 किलो ग्राम प्रति हे. की दर से बुरकाव करन चाहिए ।

फ्लावर बड रॉड: यह रोग इरविनिया एसपी के कारण होता है। इस रोग के लक्षण छोटी कलियों पर मुख्य रूप से दिखाई देते है जो बाद में सड जाते है। इस रोग से बचाव के लिए रोगी पौधों को उखाड़ के नष्ट कर देना चाहिए तथा स्ट्रेप्टोमाइसिन (0.01 प्रतिशत) के स्प्रे से रोग को नियंत्रित किया जा सकता है।

लीफ ब्लाइट या बोट्रीटिस ब्लाइट: बोट्रीटिस एलिप्टिका के कारण होने वाला यह कवक जनित रोग है । पौधे पर अमोनिकल कॉपर (2 प्रतिशत) या ग्रीनो (0.5 प्रतिशत) का छिड़काव करके रोग को नियंत्रित किया जा सकता है। उपचार को 15 दिनों के अंतराल पर दोहराया जाना चाहिए।

अल्टरनेरिया लीफ स्पॉट: अल्टरनेरिया पॉलीएंथ के कारण होने वाला कवक रोग। मैनकोजेब (0.2 प्रतिशत) या इप्रोडियोन (0.2 प्रतिशत) के स्प्रे से 10 दिनों के अंतराल पर रोग को नियंत्रित किया जा सकता है।

फूलों की कटाई
कंद रोपण के 80 से 100 दिन बाद से फूलों की कटाई शुरू हो जाती हैं और फूल जुलाई माह के बाद आना आरंभ हो जाता है । रजनीगंधा के फूल साल भर खिलते हैं।स्पाइक्स को कली-फटने की अवस्था में सुबह सूर्योदय से पहले या देर शाम के समय पे एक तेज चाकू या सेकेटर्स की सहायता से काटा जाता है जो एक साफ कट देता है। कंद (बल्ब) के विकास की अनुमति देने के लिए लगभग 4-6 सेमी निचले भाग को छोड़ देना चहिए । कटाई के तुरंत बाद कटे हुए स्पाइक्स के निचले हिस्से को, लम्बा जीवन प्रदान करने के लिए पानी में डुबो देना अच्छा होता है। लूस फूलों के उद्देश्य से अलग-अलग फूलों को सुबह जल्दी तोड़ा जाता है।

लूस फ्लावर्स या स्पाइक की उपज प्रचलित किस्म, रोपण दूरी और क्षेत्र की जलवायु की स्थिति पर निर्भर करती है। एक हेक्टेयर कंद के रोपण से एकल किस्मों से प्रति वर्ष 4-5 लाख स्पाइक्स क उत्पन्न किया जा हैं, 10-12 टन / हेक्टेयर लूस फ्लावर्स की कटाई की जा सकती है। इसके अलावा, 2-3 वर्षों के बाद 20 टन/हेक्टेयर बल्बों की प्राप्ति की जा सकती है।

कंदों (बल्बों)की खुदाई, क्यूरिंग एवं भंडारण
कंद (बल्ब) के भंडारण और उनके विकास के लिए सही समय पे रजनीगंधा बल्ब की कटाईमहत्वपूर्ण है। पुरे फूल को काटने के बाद और जब पौधे का बढ़ना बंद हो जाता है तब बल्बों की खुदाई किया जाता है। इस अवस्था में पत्तियां पीली और सूखी हो जाती हैं। इस समय पे, सिंचाई रोक दी जाती है और बल्बों को खोदने से पहले मिट्टी को सूखने दिया जाता है। पत्तियों को जमीनी स्तर पर काट दिया जाता है और कंदों (बल्बों) की खुदाई की जाती है । खुदाई के बाद, बल्बों को बाहर निकाल लिया जाता है और चिपकी हुई मिट्टी की अच्छी तरह से सफाई की जानी चाहिए । ऑफसेट या बल्बलेट को फिर हाथ से अलग किया जाता है, जिसे अगले सीजन के लिए सीड-स्टॉक के रूप में उपयोग किया जाता है। फिर बल्बों को आकार के आधार पर परिपक्व (>1.5 सेमी व्यास) और अपरिपक्व (<1.5 सेमी व्यास) में वर्गीकृत किया जाता है। साफ और श्रेणीबद्ध बल्बों को सुखाने के लिए अलमारियों पर रखा जाता है। क्यूरिंग करने के लिए 27 से 35 डिग्री सेल्सियस की कृत्रिम तापमान कंदों को रखा जाता है । फफूंद के हमले और सड़न को रोकने के लिए बल्बों को हर कुछ दिनों में हिलाया जाना चाहिए या उनकी स्थिति बदलनी चाहिए। बल्बों को सड़ने से बचाने के लिए उन्हें 0.2 प्रतिशत बाविस्टिन या मैनकोजेब पाउडर से भी उपचारित किया जाता है।