डॉ. ओमेश ठाकुर, डॉ. सौरभ पदमशाली एवं डॉ. कनकाबती कलाई
कृषि महाविद्यालय एवं अनुसन्धान केंद्र, फिंगेश्वर, गरियाबंद
इन्दिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर, छत्तीसगढ़

सिंघाड़ा तालाबों में पैदा होने वाली एक नगदी फसल है। इसका वानस्पतिक नाम ट्रापा बिस्पीनोसा है तथा इसे पानीफल या वाटर चेस्टनट के नाम से भी जाना जाता है। यह एक जलीय पौधा है जिसकी जड़े पानी के अंदर मिट्टी में धँसी रहती है एवं पत्तियों का गुच्छा पानी के ऊपर तैरता रहता है। इसकी पत्तियों के डंठल में स्पंजनुमा ऊतक होते है जिसमें हवा भरी रहती है। यही वजह है कि पत्तियाँ सतह पर तैरती रहती हैं।
    सिंघाड़े का प्रयोग सब्जी, फल, सूप आदि के रूप में किया जाता है। इसके अलावा पके फलों को सुखाकर उसकी गोटी से आटा बनाया जाता है। जिससे बने व्यंजनों का उपयोग मुख्यतः व्रत-उपवास में किया जाता है। सिंघाड़े के मुख्य पोषक तत्व प्रोटीन (4.7 प्रतिशत) एवं शर्करा (23.3 प्रतिशत) होते है। एसके अलावा इसमें कैल्शियम, फास्फोरस, लोहा, पोटेशियम, तांबा, मैगनीज, ज़िंक एवं विटामिन-सी भी सूक्ष्म मात्रा मे उपलब्ध होते है।

भूमि एवं जलवायु
सिंघाड़े की खेती उष्ण-कटिबंधीय जलवायु वाले क्षेत्रो जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओड़िसा एवं मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि में कि जाती है। इसकी खेती के लिए खेत में एक से दो फीट पानी की आवश्यकता होती है। इसकी खेती स्थिर जल वाले खेतो में की जाती है। साथ ही साथ खेतो में ह्यूमस की मात्रा अच्छी होनी चाहिए। सिंघाड़ा उत्पादन हेतु दोमट या बलुई दोमट मिट्टी जिसका पी.एच. (pH) 6.0 से 7.5 तक होता है अधिक उपयुक्त होती है।

सिंघाड़ा किस्में
सिंघाड़े में कोई उन्नत जाति विकसित नहीं की गई है परंतु हरे छिलके वाली तथा लाल छिलके वाली किस्म प्रचलित है। खेती के लिए हरे छिलके वाली किस्म अच्छी मनी जाती है क्योंकि लाल किस्म तुड़ाई के बाद काली पड़ने लगती है जिससे उसका बाजार मूल्य घट जाता है।
    जल्द पकने वाली किस्मों में कानपुरी, जौनपुरी, हरीरा गठुआ, लाल गठुआ, कटीला, लाल चिकनी गुलरी, आदि हैं जिनमे पहली तुड़ाई रोपाई के 120-130 दिन में होती है।

नर्सरी
सिंघाड़े की नर्सरी तैयार करने हेतु दूसरी तुड़ाई के स्वस्थ पके फलो का बीज हेतु चयन करके उन्हे जनवरी माह तक पानी में डुबोकर रखा जाता है। अंकुरण के पहले फरवरी के द्वितीय सप्ताह में इन फलों को सुरक्षित स्थान में गहरे पानी में तालाब या टांके में डाल दिये जाते है। मार्च माहों में फलो से बेल निकालने लगती है व लगभग एक माह में 1.5 से 2.0 मीटर तक लंबी हो जाती है। इन बेलो से 1 मीटर लंबी बेलो को तोड़कर अप्रैल से जून तक रोपण का फैलाव खरपतवार राहित तालाब में किया जाता है। रोपणी लगाने हेतु प्रति हेक्टेयर 300 किलोग्राम सुपर फास्फेट, 60 किलोग्राम पोटाश व 20 किलोग्राम यूरिया तालाब में उपयोग की जाती है साथ ही साथ रोपणी को कीट एवं रोगो से सुरक्षित रखना अति आवश्यक है। कीट एवं रोगो की रोकथाम हेतु आवश्यकता पड़ने पर उचित कीटनाशी एवं कवकनाशी का उपयोग करे।

फलो की तोड़ाई
जल्द पकने वाली प्रजातियों की पहली तुड़ाई अक्तूबर के प्रथम सप्ताह में एवं अंतिम तुड़ाई 20 से 30 दिसंबर की जाती है। इसी प्रकार देर पकने वाली प्रजातियों की प्रथम तुड़ाई नवम्बर के प्रथम सप्ताह में एवं अंतिम तुड़ाई जनवरी के अंतिम सप्ताह तक की जाती है।

फलो की छिलाई
  • जिस खेत में रोपाई करनी हो उसमें जुताई के प्रथम सप्ताह में कीचड़ मचा लिया जाता है।
  • रोपाई के पूर्व या एक सप्ताह के अंदर 300 किलोग्राम सुपर फास्फेट, 60 किलोग्राम पोटाश व 20 किलोग्राम यूरिया प्रति हेक्टेयर मिलाये साथ ही गोबर की सडी खाद का उपयोग अवश्य करें।
  • इसके उपरांत रोपाई के पूर्ण रोपणी को इमीडाक्लोप्रीड 17.8 प्रतिशत एस. एल. के घोल में 15 मिनट तक डुबोकर उपचारित किया जाता है।
  • उपचारित बेल एक मीटर लंबी 2-3 बेलो की गठान लगाकर 131 मीटर के अंतराल पर अंगूठे की सहायता से कीचड़ में गाड़कर किया जाता है।
  • रोपाई का कार्य जुलाई के प्रथम सप्ताह से 15 अगस्त के पहले तक किया जा सकता है।
  • खरपतवार नियंत्रण रोपाई पूर्व व मुख्य फसल में समय समय पर करते रहना चाहिए।
  • सिंघाड़ा फल जो अच्छी तरह से सूखे हो उनको सरोते या सिंघाड़ा छिलाई मशीन द्वारा छिला जाता है । इसके उपरांत एक से दो दिनो तक सूर्य की रोशनी में सुखाकर मोती पॉलिथीन बैग मेन रखकर पैक कर दिया जाता है।

उपज
3-3.5 टन प्रति हेक्टेयर।

फलो को सुखाना
पूर्ण पके हुये फलो की गोटी बनाने हेतु सुखाया जाता है। फलो को पक्के खलिहान या पॉलिथीन मेन सुखाना चाहिए। फलो को लगभग 15 डीनो तक सुखाया जाता है एवं 2 से 4 दिन के अंतराल पर फलो की उलट पलट की जाती है ताकि फल पूर्ण रूप से सुख सके। कांटे वाई सिंघाड़े की जगह बिना काटें वाली किस्मों का चुनाव खेती के लिए करें, ये किस्में अधिक उत्पादन देती है साथ ही इनकी गोटियों का आकार भी बड़ा होता है। एवं खेतो में इसकी तुड़ाई आसानी से की जाती है।

सिंघाड़ें के कीट
सिंघाड़ें मे मुख्यतः सिंघाड़ा भृंग लाल खजूरा नामक कीट का प्रकोप होता है, जिसमें फसल में 25-40 प्रतिशत तक उत्पादन कम हो जाता है। इसके अलावा नीला भृंग, माहू एवं घुन कीट का प्रकोप पाया गया है।

सिंघाड़ें का रोग
सिंघाड़ा फसल में मुख्यतः लोहिया व दहिया रोग का प्रकोप होता है। इन रोगों के कारण फसल कमजोर होती है साथ ही साथ फल छोटे व कम संख्या में आतें है।