डॉ अंजना ठाकुर व डॉ मधु पटियाल*

वैज्ञानिक, कृषि विज्ञान केन्द्र हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश 177044

*वैज्ञानिक, भा. कृ. अनु. परि. क्षेत्रिय अनुसंधान केन्द्र, शिमला


आजकल जलवायु परिवर्तन को लेकर हर तरफ चर्चा है। पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन कोई नया नहीं है। ऐसे भी समय आये हैं जब लगभग पूरी धरती बर्फ के चादर से ढक हुई थी जिसे हम बर्फ युग के नाम से जानते हैं, लेकिन वर्तमान में हो रहे जलवायु परिवर्तन, भूतकाल में हो रहे प्राकृति परिवर्तन से कुछ अलग हैं और जिसे मनुष्य की गतिविधि से जोड़कर देखा जा रहा है। लगभग सभी देशों में जलवायु परिवर्तन के आकलन, इसके कौन-कौन से प्रभाव होंगे, इसके लिए हम अपने को कैसे तैयार करें, और इसके दुष्प्रभाव को कैसे कम करें, इन सब को लेकर अनुसंधान परियोजनाएँ चलाई जा रही है। । वर्तमान में, लू, सूखा, बाढ़ तथा आँधी-तूफान की पुनरावृति बढऩे के प्रमाण भी मिले हैं। ग्रीन हाऊस गैसों की मात्रा में, औद्योगीकरण के दौरान खास तौर पर पिछले कुछ दशकों में बेतहाशा वृद्धि दर्ज की गई है। कार्बन डाइऑक्साइड व अन्य ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में भारी कटौती नहीं की गई तो जलवायु परिवर्तन का पृथ्वी के जीव-जगत पर विनाशकारी असर होगा। समय रहते हम इस जलवायु परिवर्तन की गति कम करने के प्रयास के साथ-साथ अपने को इसके अनुरूप तैयार करना ही आज की जरूरत है।

ग्रीन हाऊस प्रभाव:

कोई भी गैस जो सूर्य से आने वाले लघुतरंगीय विकिरण को तो पृथ्वी पर आने देती है, लेकिन पृथ्वी से वापस जाने वाले दीर्घतरंगीय विकिरण को अवशोषित कर पृथ्वी के तापमान को बढ़ा देती है, ग्रीनहाउस गैस कहलाती है। ग्रीन हाउस गैसें ग्रह के वातावरण या जलवायु में परिवर्तन और अंततः भूमंडलीय ऊष्मीकरण के लिए उत्तरदायी होती हैं। इनमें सबसे ज्यादा उत्सर्जन कार्बन डाई आक्साइड, नाइट्रस आक्साइड, मीथेन, क्लोरो-फ्लोरो कार्बन, वाष्प, ओजोन आदि करती हैं। वर्तमान में मानवीय कारणों से वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों की बढ़ती मात्रा वैश्विक तापन व जलवायु परिवर्तन का कारण बन गयी है | जलवायु प्रणाली एक अत्यंत जटिल एवं परस्पर संवादात्मक प्रणाली है जिसमें जमीनी सतह, जल समुद्र, जैवमंडल एक दूसरे पर प्रभाव डालते हैं।

लगातार बढ़ती जनसंख्या के औद्योगिकरण, भौतिक सुविधाओं की पूर्ति व यायायात संसाधनों के बढ़ने से वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा निरंतर बढ़ रही है और साथ ही वनों एवं कृषि का क्षेत्रफल भी लगातार घट रहा है जिसके फलस्वरूप प्राकृतिक संसाधनों का दोहन निःसंदेह दोगुना हो गया है| इन गैसों का उत्सर्जन आम प्रयोग के उपकरणों वातानुकूलक, फ्रिज, कंप्यूटर, स्कूटर, कार आदि से होता है। कार्बन डाई ऑक्साइड के उत्सर्जन का सबसे बड़ा स्रोत पेट्रोलियम ईंधन और परंपरागत चूल्हे हैं। पशुपालन से मीथेन का उत्सर्जन होता है। कोयला बिजली घर भी ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के प्रमुख स्रोत हैं। हालाँकि क्लोरोफ्लोरो का प्रयोग भारत में बंद हो चुका है, लेकिन इसके स्थान पर प्रयोग हो रही गैस हाइड्रो क्लोरो-फ्लोरो कार्बन सबसे हानिकारक ग्रीन हाउस गैस है जो कार्बन डाई आक्साइड की तुलना में एक हजार गुना ज्यादा हानिकारक है। इनकी मात्रा को अगर नियंत्रित न किया गया तो यह मानव के साथ साथ सम्पूर्ण जीव-जगत के लिए घातक साबित होंगी| जलवायु के परिवर्तन एवं औसत तापमान में वृद्धि से क्षेत्रीय जलवायु में बदलाव, नदियों के बहाव, उनमें जल की उपलब्धता एवं भू-जल स्तर, वर्षा की अवधि एवं वितरण, बारहमासी चश्मों में पानी, सूखा, मृदा की उर्वरता इत्यादि पर असर पड़ेगा|

अब जबकि जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक समस्या के तौर पर सामने आया है तो सबको मिल कर कुछ करने की जरूरत है। अगर हम अपने देश की औद्यौगिकरण की गति को कम किए बिना तकनीक विकास द्वारा ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन कमी कर सकते हैं तो प्रयास करना चाहिए। हमें जलवायु परिवर्तन के होने वाले परिणाम से भी निपटने की तैयारी करनी चाहिए। कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन की मात्रा में भारी कटौती करना ही जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने का एकमात्र रास्ता है।

जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभाव से निपटने के उपलब्ध विकल्प:

आम आदमी के स्तर पर:

  • सार्वजनिक परिवहन का इस्तेमाल करना।
  • जीवाश्म ईंधन के उपयोग जैसे कोयला, लकड़ी, कच्चे तेल, इत्यादि के इस्तेमाल में कमी लाएं तथा ऊर्जा के अन्य श्रोत (सौर ऊर्जा,पवन ऊर्जा,जल ऊर्जा इत्यादि) का इस्तेमाल करना।
  • ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करऩे वाले उपकरणों वातानुकूलक, फ्रिज, कंप्यूटर, पेट्रोलियम ईंधन, स्कूटर, कार, परंपरागत चूल्हे आदि का कम प्रयोग करना। 
  • पेड़-पौधे लगाना और वनों की कटाई कम करना। 
  • वानिक तथा पेड़ आधारित खेती अपनाना।
  • फसल चक्र में दलहनी फसलों का समावेश अवश्य करें जिससे नाइट्रोजन स्थिरीकरण क्रिया द्वारा वायुमंडलीय नाइट्रोजन पौधों को प्राप्त हो सके।
  • एकीकृत पौध पोषक तत्व प्रणाली को अपनाएँ जिसमें रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग के साथ-साथ कार्बिनक खादों (गोबर की स्वाद, केंचुआ खाद, कम्पोस्ट एवं हरी स्वाद इत्यादि) एवं जैव उर्वरकों (जैसे राइजोबियम, एजोटोबैक्टर, पी.एस. बी. नील हरित शैवाल आदि) के प्रयोग पर बल दिया जाना चाहिए जिससे मृदा उर्वरता के साथ-साथ पदार्थों की मात्रा में भी वृद्धि होती है पोषक तत्वों के समन्वित प्रयोग को अपनाना उत्पादकता तथा उर्वराशक्ति दोनों के लिए हितकारी है।
  • पलवार: इसमें मिट्टी की सतह को किसी भी प्रकार के प्राकृतिक एवं कृत्रिम सामग्री (जैसे घास, फसल अवशेष, पत्ते, प्लास्टिक चादर, इत्यादि) से ढका जाता है| पलवार द्वारा वाष्पीकरण कम होता है, नमी संरक्षण होता है और वर्षा का जल अधिकतम मात्रा का भूमि में समावेश होता है| पलवार द्वारा 25-50% सिंचाई योग्य जल की बचत होती है| खरीफ फसल कटने के बाद पलवार डालने से खेत की नमी बनी रहती है जो रबी फसल के लिए उपयोगी होती है।
  • गोबर एवं हरी खाद का उपयोग: ये खादें मिट्टी की जल धारण क्षमता को बढ़ाती है और जड़ क्षेत्र से नीचे वाले जल ह्रास को कम करती है। ढैंचा, सनई, जुट आदि फसलों को अपरिपक्व अवस्था में परिवर्तित जुताई द्वारा मिट्टी में दबाया जाता है।
  • निराई एवं गुड़ाई: खरपतवारों द्वारा वाष्पोत्सर्जन क्रिया से होने वाला अनावश्यक जल ह्रास निराई -गुड़ाई द्वारा कम हो जाता और भूमि में नमी बनी रहती है।
  • पहाड़ी क्षेत्रों में कुशल जल प्रबन्धन के लिए वर्षा जल संचयन, प्राकृतिक जल संसाधन बढ़ाने, यथास्थान नमी संरक्षण तथा उपलब्ध जल के कुशल उपयोग की आवश्यकता है। खेत स्तर पर जल संरक्षण के तमाम उपाय (तालाब, कंटूर बंध, मल्च इत्यादि) तथा उचित उपयोग करना।
  • जल संरक्षण के साथ-साथ हमें सिंचाई की उन्नत प्रणाली का प्रयोग करना चाहिये। बूंद-बूंद सिंचाई प्रणाली तथा फव्वारा सिंचाई विधि द्वारा पानी की 60-80% बचत के साथ-साथ 15-20% तक फसलोत्पादन में भी बढ़ोत्तरी की जा सकती है। इन विधियों द्वारा फसल को आवश्यकतानुसार बराबर पानी दिया जाता है जिससे पानी का दुरुपयोग कम होता है। 
  • छोटे किसानों के लिए कम लागत के प्लास्टिक चादर से मंडित तालाब बनाना आसान होता है और इसके लिए कोई खास प्रबंध व संसाधनों की आवश्यकता नहीं होती। पर्वतीय क्षेत्रों में जहाँ कृषक संसाधनों की कमी होने के साथ-साथ भू-भाग छोटे एवं विखंडित होते हैं वहां छोटे-छोटे एवं कम लागत से निर्मित तालाब वर्षा जल संग्रहण के लिए बहुत ही प्रायोगिक और व्यवहार्य है।
  • शून्य लागत खेती (कम जुताई, फसल अवशेष को खेत में छोडऩा इत्यादि) अपनाना।
  • आमदनी के विभिन्न श्रोत (पशु पालन, मधुमक्खी पालन इत्यादि) अपनाना।
  • धान खेती के प्रबंधन में बदलाव लाना, एसआर आई तथा भिंगी-सूखी खेती पद्धति अपनाना।
  • अप्रवाह से होने वाली जल-ह्रास की रोकथाम: अप्रवाह द्वारा होने वाले जल ह्रास को रोकने के लिए जो उपाय करने चाहिए वे है: खेतों की मेड़बंदी, खेतों को समतल करना, खेतों की जुताई ढलान के विपरीत दिशा में करने से बहाव में रुकावट पड़ती है और भूमि को पानी सोखने के लिए अधिक समय मिलता है| ढलानदार सतह पर सीढ़ीनुमा खेत बनाने और उसकी ढलान अंदर की तरफ रखने से लाभप्रद परिणाम मिलते हैं।
वैज्ञानिक तथा कार्यालय स्तर पर:
  • तापमान, सूखा तथा जल रोधी फसल एवं पशु किस्मों का विकास करना।
  • जल संरक्षण के तरीकों की खोज करना तथा इसको बढ़ावा देना।
  • विभिन्न कृषि पद्धति का जलवायु परिवर्तन पर होने वाले प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष आकंलन लगाना तथा उचित पद्धति की खोज करना।
  • बदली परिस्थिति में फसल प्रबंधन की समीक्षा तथा अच्छे प्रबंधन की पहचान एवं खोज करना।
  • सहभागी वाटेरशेड परियोजना को अपनाना एवं बढ़ावा देना।
  • साफ-सुथरे (कम ग्रीन हाऊस गैस उत्सर्जन वाले) तथा प्रभावी तकनीक का विकास करना।
नीति निर्धारण स्तर पर:
  • जलवायु परिवर्तन के विभिन्न पहलू को सहभागी वाटेरशेड परियोजना में शामिल करना।
  • जलवायु परिवर्तन की गति को कम करने वाले गतिविधि (वृक्षारोपण,जैविक खेती, संरक्षित खेती इत्यादि) को बढ़ावा देने के लिए व्यवस्था करना। वनों की कटाई और अंधाधुंध खनन को रोकना आवश्यक हो गया है और अधिक से अधिक वृक्षारोपण को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
  • कार्बन अधिग्रहण के देश के निर्धारित लक्ष्य को क्षेत्रीय तथा वाटेरशेड स्तर पर विभाजित करना एवं इनके योजना में शामिल करना।
  • जल संरक्षण के तमाम उपायो को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार भी अनुदान के रूप में सहायता प्रदान करती है पारम्परिक जल संसाधनों (तालाब, कुएँ, चश्में) को प्रदूषण से बचाने तथा समय-समय पर उनकी सफाई, निर्माण एवं मरम्मत करवाने पर भी ध्यान केन्द्रित करना आवश्यक है।
  • वर्षा जल संचयन और भू-जल पुनभरण के लिए विभिन्न तकनीक जैसे फैरो-सीमेंट टैंक, पुनभरण कुँए, गड्ढे एवं खाईयां, परकोलशन तालाब, चेक-डैम, गौबियन संरचना इत्यादि का प्रयोग सफलतापूर्वक किया जा सकता है।
जलवायु परिवर्तन से सृष्टि का विनाश तो नहीं लेकिन हाँ सृष्टि के कुछ जीवों के विलुप्त होने की संभावना बढ़ जाएगी या विलुप्त हो जाएंगे। ऊष्ण कटिबंधीय तथा उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्र के विकासशील एवं अविकसित देशों में जलवायु परिवर्तन अधिक विपरीत परिणाम होने की संभावना है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि इसके लिए हम अपने आपको तैयार करें।