द्रोणक कुमार साहू एवं आशीष रावल (पीएचडी स्कॉलर, कृषि अर्थशास्त्र) 
इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यायल रायपुर,(छ.ग.)

एक समय था जब जिमीकंद को केवल गांव या ग्रामीण इलाकों में ही इसकी लोकप्रियता थी लेकिन धीरे धीरे इसकी लोकप्रियता शहरी इलाकों में भी हो रहा है अब बाजार में जिमीकंद की लगतार मांग हो रही है ऐसे में किसान भाई अपने खेते में जिमीकंद की खेती करके आमदनी कमा कर अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार ला सकते हैं। 

जिमीकंद की जानकारी 
ओल यानि जिमीकंद ‘एरेसी’ कुल का एक सर्वपरिचित पौधा है जिसे भारतवर्ष में सूरन, बालुकन्द, अरसधाना, कंद तथा चीनी आदि अनेक नामों से जाना जाता है। इसकी खेती भारत में प्राचीन काल से होती आ रही है तथा अपने गुणों के कारण यह सब्जियों में एक अलग स्थान रखता है। ओल में पोषक तत्वों के साथ ही अनेक औषधीय गुण पाये जाते हैं जिनके कारण इसे आयुर्वेदिक औषधियों में उपयोग किया जाता है। इसे बवासीर, खुनी बवासीर, पेचिश, ट्यूमर, दमा, फेफड़े की सूजन, उदर पीड़ा, रक्त विकार में उपयोगी बताया गया है। इसकी खेती हल्के छायादार स्थानों में भी भली भांति की जा सकती है जो किसानों के लिए काफी लाभप्रद सिद्ध हुआ है। 
मिट्टी का चुनाव एवं खेत की तैयारी 
ओल के सर्वोतम विकास एवं अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए उत्तम जल निकास वाली हल्की और भुरभुरी मिट्टी सर्वोत्तम है। इस फसल के लिए बलुई दोमट मिट्टी जिसमें जीवांश पदार्थ का प्रचुर मात्रा हो, उपयुक्त पायी गयी है, खेत की पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और दो-तीन बार देशी हल से अच्छी तरह जोत कर मिट्टी को मुलायम तथा भुरभुरी बना लेना चाहिए। प्रत्येक जुताई के बाद खेत में पट्टा चलाकर समतल कर दें। 

बीज एवं बुआई 
ओल का प्रवर्धन वानस्पतिक विधि द्वारा किया जाता है जिसके लिए पूर्ण कंद या कंद को काट कर लगाया जाता है। बुआई हेतु 250-500 ग्राम का कंद उपयुक्त होता है। यदि उपरोक्त वजन के पूर्ण कंद उपलब्ध हो तो उनका ही उपयोग करें। ऐसा करने पर प्रस्फुटन अग्रिम होता है जिससे फसल पहले तैयार एवं अधिक उपज की प्राप्ति होती है। यदि कंद का आकार बड़ा हो तो उसे 250-500 ग्राम के टुकड़ों में काट कर बुआई करना चाहिए। परन्तु कंद को काटते समय एस बात का ध्यान रखें कि प्रत्येक टुकड़े में कम से कम कालर (कलिका) का कुछ भाग अवश्य रहे। 

उपरोक्त कंदों को बोने से पूर्व कन्दोपचार करना चाहिए। इसके लिए इमीसान 5 ग्राम एवं स्ट्रेप्टोसाइक्लीन 0.5 ग्राम को प्रति लीटर पानी में घोल कर कंद को 25-30 मिनट तक या ताजा गोबर का गाढ़ा घोल बनाकर उसमें 2 ग्राम कार्बोंडाजिम (वेविस्टीन) पाउडर प्रति लीटर घोल में मिलाकर कंद को उपचारित कर छाया में सुखाने के बाद ही लगायें। उपरोक्त आकार के कंद लगाने पर इनकी बढ़वार 8-10 गुणा के बीच होता है। बीज दर कंद के आकार एवं बुआई की दूरी पर निर्भर करता है।

कंद का वजन
दूरी
बीज दर   
250 ग्राम
75 x 75 सें.मी.
40-50
500 ग्राम
75 x 75 सें.मी.
70-80
250 ग्राम
1 x 1 मीटर
25
500 ग्राम
1 x 1 मीटर
50

बुआई का समय: जून - जुलाई 

लगाने की विधि: दो विधियों द्वारा ओल की बुआई की जाती है: 1. चौरस खेत में, 2. गड्ढों में। 

खाद एवं उर्वरक 
ओल की अच्छी उपज हेतु खाद एवं उर्वरक का इस्तेमाल करना बहुत ही आवश्यक है। इसके लिए 10-15 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद, नेत्रजन, फास्फोरस एवं पोटाश 80:60:80 कि.ग्रा./ हें.के अनुपात में प्रयोग करें। बुआई के पूर्व गोबर की सड़ी खाद को अंतिम जुताई के समय खेत में मिला दें। फास्फोरस की सम्पूर्ण मात्रा, नेत्रजन एवं पोटाश की 1/3 मात्रा बेसल ड्रेसिंग के रूप में तथा शेष बची नेत्रजन एवं पोटाश को दो बराबर भागों में बाँट कर कंदों के रोपाई के 50-60 तथा 80-90 दिनों बाद गुड़ाई एवं मिट्टी चढ़ाते समय प्रयोग करें। उर्वरकों का व्यवहार तालिका के अनुसार करें।

उर्वरक
उर्वरक की मात्रा
(कि.ग्रा./ हें.)
बुआई के समय
(कि.ग्रा./ हें.)
बुआई के बाद     (कि.ग्रा./ हें.)
50-60 दिन
80-90 दिन
यूरिया
180.0
60.00
60.00
60.00
सिंगल सुपर फास्फेट
375.00
375.00
-
-
म्यूरेट ऑफ़ पोटाश
160.00
53.30
53.30
53.30

गड्ढों में ओल लगाते समय प्रति गड्ढा 2 से 3 कि.ग्रा. गोबर की सड़ी खाद, 18 ग्राम यूरिया 38 ग्राम सिंगल सुपर फास्फेट, 15 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश एवं 5 ग्राम ब्लीचिंग पाउडर का प्रयोग करें। यूरिया की आधी मात्रा 9 ग्राम एवं अन्य उर्वरकों की पूरी मात्रा को मिट्टी में मिलाकर गड्ढों में भर दें। शेष आधी बची यूरिया को प्ररोह निकलने के 80-90 दिन बाद प्रति गड्ढा की दर से व्यवहार करें। 

मल्चिंग 
बुआई के बाद पुआल अथवा शीशम की पत्तियों से ढक देना चाहिए जिससे ओल का अंकुरण जल्दी होता है, खेत में नमी बनी रहती है तथा खरपतवार कम होने के साथ ही अच्छी उपज प्राप्त होती है। 

जल प्रबंधन 
यदि खेत में नमी की मात्रा कम हो तो एक या दो हल्की सिंचाई अवश्य कर दें। वर्षा आरम्भ होने तक खेत में नमी की मात्रा को बनाये रखें। बरसात में पौधों के पास जल जमाव न होने दें। 

निकाई-गुड़ाई
बुआई के 25-30 दिनों के अंदर पौधे उग जाते हैं। 50-60 दिनों बाद पहली तथा 80-90 दिनों बाद दूसरी निकाई करें। निकाई के समय पौधों पर मिट्टी भी चढ़ाते जायें। 

अन्तर्वर्ती खेती 
चूँकि इस फसल का अंकुरण देर से होता है। इसलिए पौधों के प्रारम्भिक विकास की अवधि में अन्तर्वर्ती फसलें जैसे भिण्डी, बोड़ा, मूंग, कलाई, मक्का, खीरा, कद्दू आदि फसलें सफलतापूर्वक ली जा सकती है। अनुसंधान द्वारा यह पाया गया है कि इसकी खेती लीची एवं अन्य फलों के बागों में अन्तर्वर्ती फसल के रूप में सफलतापूर्वक किया जा सकता है। 

तना गलन: इस रोग का आक्रमण उन क्षेत्रों में अत्यधिक होता है जहां पानी का जमाव ज्यादा होता है तथा लगातार एक ही खेत में ओल की खेती की जा रही हो। एस रोग का प्रकोप अगस्त-सितम्बर माह में अधिक होता है। यह मृदा जनित रोग है। इस रोग का लक्षण कालर भाग पर दिखाई पड़ता है तथा पौधा पीला पड़कर जमीन पर गिर जाता है। इसके रोकथाम हेतु उचित फसल चक्र अपनाएँ। जल निकास की उचित व्यवस्था रखें। कंद लगाने से पूर्व उसे बताई गयी विधि द्वारा उपचारित कर लें। 

खुदाई एवं भंडारण 
बुआई के सात से आठ माह के बाद जब पत्तियाँ पीली पड़ कर सूखने लगती है तब फसल खुदाई हेतु तैयार हो जाती है। खुदाई के पश्चात कंदों की अच्छी तरह मिट्टी साफ़ कर दोतीन दिन धूप में रखकर सुखा लें। कटे या चोट ग्रस्त कंद को स्वस्थ कंदों से अलग कर लें। आर्थिक लाभ 

यदि उपरोक्त बातों को ध्यान में रखकर ओल की खेती किया जाये तो इससे रु. 1,25,000/- से 1,50,000/- तक शुद्ध लाभ प्राप्त किया जा सकता है तथा किसान अपनी आर्थिक स्थिति को सुधार सकते हैं।