नील हरित काई 
  • रोपा विधि से लगाये गये धान में हरी खाद के उपयोग में आसानी होती है।
  • नील हरित काई (ब्लू ग्रीन एल्गी) धान फसल के लिये प्रकृति प्रदत्त अमूल्य जैविक उर्वरक है। इसका उपयोग प्राय: धान के उन खेतों में करें, जिनमें पानी भरा रहता है। इससे लगभग 25 किलोग्राम नत्रजन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से धान की फसल को मिलती है। साथ ही साथ लगभग 10 किवं. कार्बनिक पदार्थ प्रति हेक्टेयर भी प्राप्त होता है, जो पूरे फसल-चक्र के लिये मृदा में अनुकूल सुधार करता है।
  • धान की रोपाई अथवा बियासी और चलाई के 5-6 दिन बाद 5-8 से.मी. खड़े एवं सिथर पानी में 10 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर के हिसाब से नील हरित काई क्लचर का छिड़काव करें। खेत का पानी बहकर बाहर न जाए, इसका प्रबन्ध कल्चर छिड़काव के पहले ही कर लें। स्फुर तथा सूर्य के प्रकाश की पर्याप्त उपलब्धता नील हरित काई की वृद्धि में बहुत अधिक सहायक होती है।
  • नील हरित काई में एनाबीना, नोस्टाक, रिबूलेरिया, केलोथि्रक्स, साइटोनेमा जाति की ऐसी प्रजातियां, जिनमें हेटेरोसिस्ट कोशाओं की संख्या अधिक हो, से बना कल्चर फसलों के लिये ज्यादा लाभदायक होता है, क्योंकि ऐसी प्रजातियां प्राय: वायुमण्डलीय नत्रजन की अधिक मात्रा एकत्र करती है।  
धान के खेत में नील हरित काई कल्चर की उपचार तकनीक:
  • बियासी करने अथवा रोपा लगाने के 6 दिन बाद व 10 दिन से पहले कल्चर छिड़काव करें।
  • खेत में कम से कम 8-10 से.मी. खड़ा एवं सिथर पानी होना चाहिए।
  • स्फुर की पूरी मात्रा बियासी अथवा रोपा के समय ही डालें।
  • 10 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर कल्चर को लगभग 25 कि.ग्रा. भुरभुरी मिट्टी या सूखी गोबर खाद के साथ मिलाकर छिड़कें।
  • धान फसल में कीट प्रकोप होने की स्थिति में कीटनाशक दवाओं का प्रयोग भी कर सकते हैं।
  • खेत में नुकसानदायक हरी काई को इसकी प्रारंभिक अवस्था में आयोडीन घोल से परीक्षण करें
  • यदि काई का रंग काला या नीला हो जाता है तो 75 ग्राम नीला थोथा (कापर सल्फेट) 150 ग्राम लीटर पानी में घोलकर एक एकड़ में काई के ऊपर छिड़काव करें। इसके 7 दिन बाद आवश्यकता होने पर पुन: छिड़काव कर सकते हैं। इससे नुकसानदायक हरी काई को नियंत्रित किया जा सकता है। यहा ध्यान देने योग्य बात यह है कि हरी काई को उसकी प्रारंभिक अवस्था में ही नियंत्रित किया जाना चाहिये।
  • कल्चर डालने के 20-25 दिन बाद नत्रजनयुक्त रासायनिक उर्वरक जैसे- यूरिया आदि डाला जा सकता है।
एजोस्पाइरिलम 
  • यह असहजीवी जीवाणु मृदा में स्वतंत्र रूप से निवास करते हुए वायुमण्डलीय नत्रजन को इकटठा कर पौधों को देता है।
  • यह कल्चर उन फसलों के लिये विशेष रूप से उपयुक्त है, जिन्हें जल भराव वाली या अधिक नमीयुक्त भूमि में उगाया जाता है।
  • शोध परिणामें से यह देखा गया है कि एजोस्पाइरिलम के उपयोग 3 से 8 प्रतिशत तक धान फसल की उपज में वृद्धि प्राप्त की जा सकती है । 
स्फुर घोलक जीवाणु (पी.एस.बी.) कल्चर 
स्फुरधारी उर्वरकों का प्राय: 5 से 25 प्रतिशत भाग ही पौधे उपयोग कर पाते है, शेष मात्रा मृदा में अघुलनशील अवस्था में रहती है, जो पौधों के लिये अनुपयोगी हो जाती है । स्फुर घोलक जीवाणु कल्चर अघुलनशील स्फुर को घोलकर पौधे को उपलब्ध कराने की क्षमता रखता है। इसके प्रयोग से प्रति हेक्टेयर लगभग 60-70 कि.ग्रा. तक सिंगल सुपर फास्फेट बचाया जा सकता है या 3 से 7 प्रतिशत तक फसल की उपज में वृद्धि प्राप्त की जा सकती है।   
 
पी.एस.बी. एवं एजोस्पाइरिलम जीवाणु उर्वरक उपयोग:-
  • बोता फसल के लिये 5 से 10 ग्राम कल्चरकिलो की दर से बीज उपचार करें।
  • रोपाई से पहले धान की जड़ों को 750 ग्राम कल्चरहे. का घोल बनाकर निवेशित करें।
  • कल्चर पैकेट ठन्डे स्थान पर रखें । उपचारित बीजों का छाया में सुखायें तथा शीघ्र बोनी करें।
  • फसल के लिये निर्धारित कल्चर ही उपयोग करें।
  • कल्चर पैकेट पर अंकित, प्रयोग करने की अंतिम तिथि पर ध्यान दें।
  • पी.एस.बी. के साथ एजोस्पाइरिलम जीवाणु उर्वरकों का साथ-साथ उपयोग करना लाभदायक है।